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मुहब्बत है कभी जिसने मुझे कहला दिया साहिब
मगर फिर घाव उसने ही बहुत गहरा दिया साहिब
जरूरत ही नहीं होती मुहब्बत में व़फाओं की
के बच्चों की तरह उसने मुझे बहला दिया साहिब
सड़क पर भूख से बेचैन माँ आँसू बहाती है
निवाला बेटे को जिसने ,कभी पहला दिया साहिब
मुहब्बत मिट नहीं पायी दीवारों में चुनी फिर भी
रक़ीबों ने जमाने से बहुत पहरा दिया साहिब
बहुत छेड़ा है दुनिया ने खुदा की पाक धरती को
हिली धरती मगर ऐसी जहां दहला दिया साहिब
अभी तक भी मेरे दिल में कहीं महफूज बहती है
नदी है वो मगर उसने मुझे सहरा दिया साहिब
कहाँ तक ढूँढ़ती फिरती ,अदालत भी मेरा कातिल
अदालत ने मेरा कातिल , मुझे ठहरा दिया साहिब
मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Comment
शुक्रिया Samar kabeer जी ..
क्या बात है आ० उमेश सर!छा गए!मजा आ गया! बेहतरीन गजल पर हार्दिक बधाई व् शुभकामनाए!
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है ... मुबारकबाद
कहाँ तक ढूँढ़ती फिरती ,अदालत भी मेरा कातिल
अदालत ने मेरा कातिल , मुझे ठहरा दिया साहिब -------------- कटारा जी . बल्ले बल्ले .
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