2122 2122 2122
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मर्ज बढ़ता जा रहा अब क्या रखा है
बेअसर होती दवा अब क्या रखा है
ढ़ूँढ ले अब हम सफर कोई नया तू
मुस्करादे कब कज़ा अब क्या रखा है
रच रहे हम साजिशें इक दूसरे को
साथ चलने में बता अब क्या रखा है
साथ आना जाना भी क्यों महफिलों में
बन्द कर ये सिलसिला अब क्या रखा है
शहर पूरा है, मगर आया नहीं तू
बिन मिले ही मैं चला अब क्या रखा है
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
क्या बात है ! ग़ज़ल अच्छी हुई है. मतला विशेष प्रभावी है. दाद कुबूल कीजिये.
बहुत सुंदर उमेश जी..बधाई आपको
आदरणीय उमेश भाई , लाजवाब गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
रच रहे हम साजिशें इक दूसरे को
साथ चलने में बता अब क्या रखा है -- ढेरों बधाइयाँ ।
आदरणीय MUKESH SRIVASTAVA जी ग़ज़ल की पसन्दगी के लिये आभार
nice sundar gazal mtira - badhaee ho
आदरणीय Samar kabeer जी ग़ज़ल की पसन्दगी के लिये आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी ग़ज़ल की पसन्दगी के लिये आभार
आदरणीय Shyam Narain Verma जी ग़ज़ल की पसन्दगी के लिये आभार
आदरणीय वीनस केसरी जी ग़ज़ल की पसन्दगी के लिये आभार
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