" तुमको बुरा नहीं लगता इसमें , बिना अपनी मर्ज़ी के ये सब ", उसने पूछ लिया |
" हाँ , बहुत तक़लीफ़ हुई थी मुझे , जब अस्मत लुटी थी मेरी | और उससे भी ज्यादा तक़लीफ़ तब हुई थी , जब घर वालों ने भी दरवाज़ा बंद कर दिया था "|
उसने अपना चेहरा घुमा लिया , पुराना दर्द फिर उभर आया था |
.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय श्री सुनील जी..
आपने सराहा , अब और क्या चाहिए आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी | बहुत बहुत आभार आपका ..
कोई रचना मात्र इसलिए सफल नहीं हुआ करती कि उसमें प्रयुक्त शब्दों से चमत्कार पैदा होता है, बल्कि उसके शब्दों ने क्या नहीं कहा और वह सारा कुछ निस्सृत हो जाय. यही कुछ आपकी इस प्रस्तुति में संभव हुआ है. आपकी इस लघुकथा से निस्सृत हुए भाव इस समाज की असंवेदनशीलता को गहराई से साझा करते हैं.
हार्दिक बधाई स्वीकर करें, आदरणीय विनय कुमारजी.
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , धन्यवाद इस टिप्पणी के लिए..
बहुत बहुत आभार आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी , धन्यवाद इस टिप्पणी के लिए..
वाऊ ....... बहुत बढ़िया . बधाई हो .
बहुत ही कम शब्दों में , बड़ी गहन बात कही आपने आदरणीय विनय जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें
बहुत बहुत आभार आदरणीय मोहन सेठी इंतज़ार जी..
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मोहन जान गोरखपुरी जी.
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