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" तुमको बुरा नहीं लगता इसमें , बिना अपनी मर्ज़ी के ये सब ", उसने पूछ लिया |
" हाँ , बहुत तक़लीफ़ हुई थी मुझे , जब अस्मत लुटी थी मेरी | और उससे भी ज्यादा तक़लीफ़ तब हुई थी , जब घर वालों ने भी दरवाज़ा बंद कर दिया था "|
उसने अपना चेहरा घुमा लिया , पुराना दर्द फिर उभर आया था |

.
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 28, 2015 at 8:46am

बहुत प्रभावी ....चार पंक्तियों में सारा दर्द भर दिया ...बधाई 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 28, 2015 at 8:01am

बेहतरीन लघुकथा,हार्दिक बधाई!

Comment by विनय कुमार on May 27, 2015 at 8:27pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय  शिज्जु "शकूर जी..


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2015 at 7:49pm

मार्मिक लघुकथा क्या कहूँ अब बधाई आपको इस सार्थक रचना के लिये

Comment by विनय कुमार on May 27, 2015 at 6:12pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय नादिर ख़ान साहब |

Comment by नादिर ख़ान on May 27, 2015 at 6:04pm

आदरणीय वी के सिंह साहब आपने 3, 4 पंक्तियों में पूरी गाथा लिख दी।कहानी का दर्द सच्चाई  बयाँ कर रहा है । उत्तम रचना कर्म हुआ है साहब ......।

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