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ग़ज़ल-नूर -अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.

२१२२/१२१२/२२ (११२)
या ख़ुदा ऐसी ला-मकानी दे
अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.
.
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे.
.
यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.      
.
सच मेरा कोई मानता ही नहीं
सच लगे ऐसी इक कहानी दे.
.
मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी  
मेरी ग़ज़लों को थोडा पानी दे.
.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:29pm

शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:29pm

शुक्रिया आ. डॉ गोपाल नारायण जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:29pm

शुक्रिया आ. समर कबीर सर 

Comment by maharshi tripathi on June 1, 2015 at 10:08pm
Comment by narendrasinh chauhan on June 1, 2015 at 3:37pm

“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे. बहुत खूब लाजवाब

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2015 at 11:35am

.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे------वह वाह --- बहुत खूब नूर जी , लाजवाब गजल .

Comment by Samar kabeer on June 1, 2015 at 11:04am
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,ख़ूबसूरत ,मुकम्मल और कामयाब ग़ज़ल के लिये शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

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