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ग़ज़ल-नूर - नया सफ़र भी पुराना रहा, नया न हुआ

१२१२/११२२/१२१२/११२
नया सफ़र भी पुराना रहा, नया न हुआ
मैं आदमी न हुआ और वो ख़ुदा न हुआ
.
.
सहर मलेगी अभी मुँह पे, रात के कालिख़
वो आफ़्ताब उछालूँगा जो हवा न हुआ. 
.
अजीब जात हूँ जो टूटकर पनपता हूँ
वगर्ना टूट के पत्ता कोई हरा न हुआ.
.
ये कायनात कहाँ और ऐ बशर तू कहाँ
बड़ा समझने से ख़ुद को कोई बड़ा न हुआ,
.
किसी चिराग़ सा मैं और आफ़्ताब सा वो
ये उस की सादा-दिली फिर भी आईना न हुआ. 
.
चलेगा साथ सफ़र में ये ज़िद रही उसकी
जो देखी धूप कड़ी, उस का हौसला न हुआ.    
.
करेगा ख़ुद पे भरोसा तो साथ देगा रब   
बग़ैर अज़्म, कहीं कोई मोजज़ा न हुआ.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on June 4, 2015 at 1:21pm

मतला कई बार पढ़ता गया ... मज़ा आ गया

शेर दर शेर खूब ग़ज़ल हुई है
ढेरो दाद

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 3, 2015 at 10:55pm

चलेगा साथ सफ़र में ये ज़िद रही उसकी
जो देखी धूप कड़ी, उस का हौसला न हुआ.

क्या बात है nilesh सर! बेहतरीन!!

Comment by maharshi tripathi on June 3, 2015 at 10:19pm

वाह वाह ! हर मतला बहुत सुंदर है ,,,दिली दाद कुबुलें आ. Nilesh Shevgaonkar जी |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 3, 2015 at 10:07pm

नूर भाई

यह अदा कहाँ पाई ? बेशुमार बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 3, 2015 at 6:56pm

बेहतरीन ग़ज़ल है वाह बधाई हो

Comment by Shyam Narain Verma on June 3, 2015 at 4:45pm

इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई ,

सादर ,

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 2:49pm

शुक्रिया आ. समर कबीर साहब..आप जैसे गुणीजन मार्गदर्शन कर रहे हैं तो सीखना सरल हो जाता है ..
स्नेह बनाए रखिये 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 2:48pm

शुक्रिया आ. डॉ आशुतोष जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 2:48pm

शुक्रिया आ. विनय कुमार जी..वर्ना और वगर्ना दोनों सही हैं..
वगर्ना शह्र में ग़ालिब की आबरू क्या है ..
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 2:46pm

शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी 

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