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मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है
जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है
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रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर
तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है
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वो मेहरबां है तो कुछ और न सुनाई दे,गर हो जाय खफा तो
चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना रक्खा है
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बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले
आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है
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इक ना इक दिन तो मिलके ही रहूँगा ‘‘जान’’ उस जादूगर से मैं
जिसने टांकें हैं फलक पे सितारे,जिसने चाँद का दिया रक्खा है
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) जान गोरखपुरी
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Comment
आ० विजय निकोर सर गजल पर हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत आभार!सादर!
बहुत ही दिलकश, खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय कृष्णा जी।
आ० गिरिराज सर!आपके मार्गदर्शन का इन्तजार था,हृदय से आभारी हूँ...मुझे भी कुछ जगहों पर गेयता में दिक्क़त दिख रही है,बहुत प्रयास किया था इसे कम करने का पर सफल नही हो सका,गेयता का सुधार भविष्य के लिए छोड़ रक्खा है,मुझे पूर्ण विश्वास है कि गाते-गुनगुनाते शब्दसंयोजन धीरे धीरे भविष्य में ठीक होता जायेगा!!सादर!!
आ० आशुतोष सर गज़ल पर आपकी उपस्थिति पाकर मन हर्षित हुआ,आपकी हौसलाफजाई से लेखनी को नवीन उर्जा मिली है!आ० बहुत बहुत शुक्रिया!आभार!
एक विवाह समारोह में शिरकत के लिए बाहर गया हुआ था इस कारण से समय पर प्रतिउत्तर नही दे सका,इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ!
आदरनीय कृष्णा भाई , गज़ल खूब कही है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें । बस गेयता मे कुछ कमी लगी है , शब्द विन्यास को देखें तो वो कमी भी दूर हो जायेगी ।
प्रिय कृष्णा जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए आपको ढेर सारी बधाई सादर
बात कलम और कासिद की क्या जाने ये ईमेल जमाने वाले
आँसू, बोसे, खुशबू, जादू कागज के ख़त में क्या क्या रक्खा है
बहुत खूब, प्रिय कृष मिश्रा जी , बधाई, सादर.
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