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वक़्त ये चलता है चलते हुए सूरज की तरह
तन मेरा जलता है जलते हुए सूरज की तरह
रोशनी इल्म की दुनिया में तभी बिखरेगी
तम को निगलोगे निगलते हुए सूरज की तरह
जुल्फ की छांव तले शाम गुजारो अपनी
अब्र में छुप के बहलते हुए सूरज की तरह
राह मुश्किल है जवानी की संभलकर चलना
कितने फिसले हैं फिसलते हुए सूरज की तरह
अब्र की छांव में हर रोज छुपाकर खुद को
इक कमर ने छला छलते हुए सूरज की तरह
चाँदनी शब् में हैं जीने के बसर जो आदी
उनको खलते दिए खलते हुए सूरज की तरह
काम कुछ करना हो आशू तो यकीनन करना
चीर के तम को निकलते हुए सूरज की तरह
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय |
बहुत बढ़िया उम्दा प्रयास आशू जी.
प्रिय कृष्ण जी ..रचना पर आपकी त्वरित प्रतिक्रिया से मैं बड़ा ही उत्साहित महसूस कर रहा हूँ ..बस यूं ही स्नेह बनाये रखें सादर
जुल्फ की छांव तले शाम गुजारो अपनी
अब्र में छुप के बहलते हुए सूरज की तरह वाह वाह!
बेहतरीन गजल हुयी है आ० आशुतोष सर!दिल से दाद कबूल फरमाएं! सादर
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