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राह मुश्किल है जवानी की संभलकर चलना

२१२२   ११२२   ११२२  २२/११२

वक़्त ये चलता है चलते हुए सूरज की तरह 

तन मेरा जलता है जलते हुए सूरज की तरह 

रोशनी इल्म की दुनिया में तभी बिखरेगी 

तम को निगलोगे निगलते  हुए सूरज की तरह

जुल्फ की छांव तले शाम गुजारो अपनी 

अब्र में छुप के बहलते हुए सूरज की तरह 

राह मुश्किल है जवानी की संभलकर चलना 

कितने फिसले हैं फिसलते हुए सूरज की तरह 

अब्र की छांव में हर रोज छुपाकर खुद को 

इक कमर ने छला छलते हुए सूरज की तरह 

चाँदनी शब् में हैं जीने के बसर जो आदी

उनको खलते दिए खलते हुए सूरज की तरह

काम कुछ करना हो आशू तो यकीनन करना

चीर के तम को निकलते हुए सूरज की तरह

मौलिक व अप्रकाशित  

 

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Comment by Samar kabeer on June 5, 2015 at 4:03pm
जनाब डॉ आशुतोष मिश्रा जी,आदाब, अच्छे भावों से सजी हुई ग़ज़ल ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

चोथे शैर का सानी मिसरा मेरी समझ से परे है,क्यूँकि मैंने कभी सूरज को फिसलते हुए नहीं देखा ।
Comment by Shyam Narain Verma on June 5, 2015 at 3:29pm
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 5, 2015 at 2:38pm

बहुत बढ़िया  उम्दा प्रयास  आशू जी.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 5, 2015 at 1:44pm

प्रिय कृष्ण जी ..रचना पर आपकी त्वरित प्रतिक्रिया से मैं बड़ा ही उत्साहित महसूस कर रहा हूँ ..बस यूं ही स्नेह बनाये रखें सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 5, 2015 at 12:16pm

जुल्फ की छांव तले शाम गुजारो अपनी 

अब्र में छुप के बहलते हुए सूरज की तरह   वाह वाह!

बेहतरीन गजल हुयी है आ० आशुतोष सर!दिल से दाद कबूल फरमाएं! सादर

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