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दर्पण को देख हुस्न यूं शर्माने लगा है
लगता खुमारे इश्क उस पे छाने लगा है
उंगली में चुनरी लिपटी है दांतों से दबे ओंठ
इक दिल धड़क धड़क के नगमे गाने लगा है
जगते हैं पहरेदार भी आँखों के निशा में
ख्वावो में उनके जबसे कोई आने लगा है
रुक-रुक के सांस चलती है नजरों में उदासी
सीने से दिल निकल के जैसे जाने लगा है
कलियों के साथ देख के भंवरों को वो तन्हा
कुछ कुछ समझ में माजरा ये आने लगा है
कितनी दफा ही आ चुका सावन का महीना
क्यूँ इस दफा गुलों को यूंँ बहकाने लगा है
जूही गुलाब चंपा से जूडा यूंँ सजाकर
इक गुल हसीं फिजा को ही महकाने लगा है
जुल्फें जो हुस्न ने कभी बांँधी थी जतन से
जुल्फे बही हवा में क्यूँ लहराने लगा है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ० बड़े ही शानदार मतले से शुरुआत की और अंत तक निभाया . सुंदर .
जगते हैं पहरेदार भी आँखों के निशा में
ख्वावो में उनके जबसे कोई आने लगा है बहुत खूब
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