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उंगली में चुनरी लिपटी है दांतों से दबे ओंठ

2212  1212  221  122

दर्पण को देख हुस्न यूं शर्माने लगा है 

लगता खुमारे इश्क उस पे छाने लगा है 

उंगली में चुनरी लिपटी है दांतों से दबे ओंठ 

इक  दिल धड़क धड़क के नगमे गाने लगा है

 

जगते हैं पहरेदार भी आँखों के निशा में 

ख्वावो में उनके जबसे कोई आने लगा है

 

रुक-रुक के सांस चलती है नजरों  में उदासी 

सीने से दिल निकल के जैसे जाने लगा है 

कलियों के साथ देख के भंवरों को वो तन्हा 

कुछ कुछ समझ में माजरा ये आने लगा है

 

कितनी दफा ही आ चुका सावन का महीना 

क्यूँ इस दफा गुलों को यूंँ बहकाने लगा है 

जूही गुलाब चंपा से  जूडा यूंँ   सजाकर

इक गुल हसीं फिजा को ही महकाने लगा है

जुल्फें जो हुस्न ने कभी बांँधी थी जतन से

जुल्फे बही  हवा में क्यूँ लहराने लगा है

मौलिक व अप्रकाशित  

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 6:20pm

आ० बड़े ही शानदार मतले से शुरुआत की  और अंत तक निभाया  . सुंदर .

Comment by narendrasinh chauhan on June 11, 2015 at 4:53pm

जगते हैं पहरेदार भी आँखों के निशा में 

ख्वावो में उनके जबसे कोई आने लगा है बहुत खूब

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