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"वाह बनर्जी साहब ! आपके बाग़ की खूबसूरती देख़ कर हृदय गदगद हो जाता है ।और हो भी क्यों न ? आपने जो अपने बच्चों की तरह इन्हें सजाने-सँवारने में जीवन लगा दिया ।"

"हाँ लालाजी ।जवानी में यही सोच के रोपे थे कि इनकी छाँव में अपनी जीवन संध्या गुजारूँगा ।सो बस वही कर रहा हूँ ।"

" पर मैंने सुना है , आप सारे पेड़ों के फल पड़ौसियों और रिश्तेदारों में मुफ़्त ही बाँट देते हैं।भला ये क्या मूर्खता हुई , जबकि आपको इन उन्नत किस्मों के बाज़ार में मुँह-माँगे दाम मिल सकते हैं।"

" लालाजी ! अभी आप ही ने तो इन्हें मेरे बच्चे कहा , तो क्या कोई बाप अपनी आत्मा का सौदा कर सकता है ?"

मौलिक व अप्रकाशित ।

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Comment by kanta roy on June 17, 2015 at 3:43pm
बहुत ही सुंदर रचना लिखी है आपने आदरणीया शशि बंसल जी ...... भावनाओं से ओतप्रोत .......बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 17, 2015 at 12:38pm

सुन्दर लघु कथा भावनाओं का कोई मोल नहीं होता बहुत सुन्दर प्रेरणास्पद लघु कथा ,हार्दिक बधाई आपको 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 17, 2015 at 9:41am

खूब सुन्दर लघुकथा!आ० शशि बंसल जी बधाई!सादर!

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 16, 2015 at 3:23pm

प्रभाशाली प्रस्तुति, आदरणीय सुश्री शशी बंसल जी ,बधाई, प्रस्तुति पर, सादर. 

Comment by विनय कुमार on June 16, 2015 at 2:28pm

हर चीज़ का मोल नहीं होता , बहुत सुन्दर लघुकथा आदरणीया ..

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 12:46pm

आदर्शवाद  अब लोगों को पचता नहीं  इसीलिये आदर्शोन्मुख यथार्थवाद  को स्वीकृति मिली है , पर आपका  प्रयास अच्छा  है . सादर .

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