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काम का आदमी ( लघुकथा )

" मंजू के यहाँ आज बडी़ वाली एल ई डी भी आ गई । पिछले ही महिने उसने गाड़ी भी ली थी । और एक आप है ...!!!"
" मै क्या ....? क्या कहना चाहती हो तुम ?"
वहीं पास के विडियो गेम में लगे बेटे ने भी कंधे को उचका कर पिता की ओर देख फिर अपने गेम में व्यस्त हो गया ।
" मै क्या कहूँगी भला आपसे .! आपकी ही आॅफिस का बाबू है वो ..और आप अधिकारी होकर भी किसी काम के नहीं ..! "
" किसी काम का नहीं मै ....? "- मन में रह - रह कर एक ही बात अब घुम रही थी कि वे क्या किसी काम के नहीं है सच में ..? कल आॅफिस की लाॅबी में भी ठेकेदार के मुंह से परोक्ष में सुना था कि ये किसी काम के नहीं !
अगले ही दिन आॅफिस में ठेकेदार की अपूर्ण फाईल को पूर्ण करने के प्रयास में वे जी जान से लग गये थे ।


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:53pm
सही कहा आपने कि समसमायिक विषयों पर सतत लेखन होना ही चाहिए । आभार आपको कथा पर मेरा हौसला बढाने के लिये आदरणीय केवल प्रसाद जी
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:49pm
कथा पर टिप्पणी देकर मुझे अनुग्रहित करने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीया डा. नीरज शर्मा जी ॥
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:44pm
आदरणीय डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , सच कहा आपने कि बहती धारा में बहना आसान है । इमानदारी आज मजाक बन कर रह गई है । नैतिक मूल्यों का ह्यास बडी तेजी से होता जा रहा है । परिवार का खाका अब सीरियल के हिसाब से तय किए जाते है । साड़ी कपड़े सब डिजायनर ..... वेल फर्निस्ड घर .शिक्षा में आये व्यावसायिकता ....दिखावे का बडा आडम्बर । क्या करें सब घालमेल संस्कृति और संस्कार का हो रहा है । अति महत्वाकांक्षा ने सब बिगाड़ कर रख दिया है । बाजारीकरण ने तो जन जन को लपेटे में ले लिए है । कोई विकल्प नहीं दिखाई देता है । जैसे सब दम तोड़ रहे हो ... संस्कृति की ह्यास को रोकने हेतु एक बडे प्रयास की जरूरत तो है । जागरूकता का आवाहन ही एक मात्र उपाय दिखाई देता है । आभार
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:22pm
आभार आपको आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी मेरा हौसला बढाने के लिए ।
Comment by kanta roy on June 18, 2015 at 9:21pm
आभार आपको दिल से आदरणीय डा. विजय शंकर जी कथा पर नजर करने के लिए । आप सब सुधी जनों के बीच बडी अपरिपक्व सी पाती हूँ स्वंय को । आपका यह हौसला वर्धन मेरे आने वाली कथा के लिए हितकारी सिद्ध होगा ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है । आपसे सदा मार्गदर्शन की आशा रहेगी । नमन
Comment by maharshi tripathi on June 18, 2015 at 7:44pm

आज की परिस्थित में ईमानदारी है ही कहाँ ,,जो व्यक्ति  इसके नियमों पर चलते हैं आज का समाज उन्हें जीने नही देता,,,,और बेईमानी का तो बोलबाला है ,,,आपको हार्दिक बधाई आ. kanta roy जी |

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 17, 2015 at 9:07pm

दुनिया में कम ही लोग ऐसे होंगे जो अपनी मनमर्जी से २ नम्बरी कमी करना चाहते है पर उनकी अपने  ही परिवार व् समाज में झूठी प्रतिष्ठा  का प्रश्न ही उन्हें ऐसा करने पर विवश करता  है! बहुत ही सार्थक विषय पर लघुकथा हुयी है!हार्दिक बधाई आदरणीया!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 7:16pm

समसामयिक विषयो पर लेखनी तो चलती ही रहनी चाहिये. इस सुंदर प्रस्तुति के लिये हार्दिक बधाई.  आ0 कांता जी, सादर

Comment by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on June 17, 2015 at 7:01pm

विषय बहुत सार्थक  है, प्रस्तुति भी ठीक है। वाकई इस दल दल में घुस कर निकलना बहुत ही दुरूह कार्य है, वैसे भी लालच का कभी अंत नहीं हो सकता। एक ईमानदार व्यक्ति को भी अपनों के ताने बेईमान बनने के लिए मजबूर कर देते हैं। आज के परिपेक्ष्य में देखें तो विरले ही ईमानदार मिलेंगे। 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 17, 2015 at 5:41pm

बहती धारा में शामिल होना आसांन  है   .मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूँ की आज  ईमानदारी को प्रोत्साहित करने वाला कोई नहीं है , न माँ, न बाप, न पत्नी और न बच्चे और समाज के कंटक तो  आप है ही .  मुझे याद है मेरे पिता मुझे मेरी प्रथम नियुक्ति  पर पौड़ी गढ़वाल छोड़ने गए थे , मैं  उन्नीस वर्ष का था. वहां से विदा होते समय उन्होंने कुछ बातें कही थी उनमें  से एक यह बात थी कि   मैंने कभी नं  2 की कमाई नहीं की पर  यह मैं यहाँ तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ  मगर बेटा यह याद रखना की इस  व्यवहार में रिटेक नहीं होता अर्थात आज ले लेते है आगे फिर नहीं लेंगे .एक बार का फिसलना हमेशा के लिए फिसलना है I  मैंने उनका बचन कितना निभाया यह मेरे साथ जिन्होंने काम किया है वे ही जानते हैं और इस सार्वजानिक मंच पर मुझे इसे बताने में इसीलिये कोई संकोच नहीं है  i इस  कहानी का कमजोर चरित्र मुझे प्रभावित  नहीं करता परन्तु  धारा के विपरीत कितने चल पाते हैं . सादर .

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