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गजल-सुख की भी दोस्त गम सी तासीर बन गयी है।

221 2122 221 2122

नाकामयाबी मेरी तकदीर बन गयी है।
अब जिन्दगी ये गम की तस्वीर बन गयी है।।

मरहम समय का भी कुछ आराम दे न पाया।
ये चोट अब जिगर की जागीर बन गयी है।।

उलझी पडी है उल्फत की बेडियों में साँसें।
यादों से मिल के धडकन भी तीर बन गयी है।।

सुनती है गर कहीं तू इक बार आ के मिल ले।
रो रो के मेरी हालत गम्भीर बन गयी है।।

हँसता हुँ तब भी चहरा छोडें नहीं उदासी।
सुख की भी दोस्त गम सी तासीर बन गयी है।।

आँखों ने आँसुओं से चहरे पे लिख दिया है ।
गुरबत जमाने में इक तकसीर बन गयी है।।

उसके लिए मुहब्बत इक खेल था एे 'राहुल'।
तेरे लिए तो आँखों का नीर बन गयी है।।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Rahul Dangi Panchal on June 17, 2015 at 6:58am
आदरणीय समर कबीर जनाब आप जैसे गुनीजनो के सुझाव ही मेरे लिए बहुत उपयोगी है। जनाब फिर तो "यादों से मिल के साँसे भी तीर बन गयी है।" यह मिसरा भी बदलना होगा क्यूं कि साँसें भी बहुवचन है ?
Comment by Rahul Dangi Panchal on June 17, 2015 at 6:54am
आदरणीय मनोज भाई गजल को समझने हेतु मैं आपका आभारी हुँ सादर
Comment by Samar kabeer on June 16, 2015 at 10:57pm
जनाब राहुल डांगी जी,आदाब,बहुत साफ़ सुथरी और अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

"चोटें मेरे जिगर की जागीर बन गयी है"

इस मिसरे में "चोटें" बहु वचन है और आपकी रदीफ़ एक वचन है,इस लिहाज़ से ये मिसरा बदलना उचित होगा ,सुझाव के तौर पर एक मिसरा लिख रहा हूँ,पसंद आए तो रख लीजियेगा,वैसे आप ख़ुद भी सक्षम हैं :-

"हर चोट अब जिगर की जागीर बन गई है"

इसमें आपकी मौलिकता भी भंग नहीं होगी ।
Comment by मनोज अहसास on June 16, 2015 at 10:32pm
आपकी मुहब्बत को सलाम सर
बहुत बात है आपमें
सादर
Comment by Rahul Dangi Panchal on June 16, 2015 at 9:18pm
सादर आभार आदरणीय गोपाल नारायन जी
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 9:15pm

राहुल जी

क्या बात है , बहुत बेहतरीन ,

कृपया ध्यान दे...

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