हजज मुसम्मन सालिम
1222 1222 1222 1222
तुम्हारी आँख का जादू ज़रा हमराज देखेंगे
भरा कैसा है सम्मोहन यही तो आज देखेंगे
कभी मैंने तुम्हें चाहा अभी तक दर्द है उसका
रहेगी कोशिशें मेरी तेरे सब काज देखेंगे
नहीं आसां मुहब्बत ये कलेजा मुख को आता है
यहाँ पर वश न था मेरा गिरेगी गाज देखेंगे
मुहब्बत तो इबादत है खुदाई नूर है इसमें
जिसे इसका नशा उसकी अनोखी छाज देखेंगे
नशे में हैं नशा बांटे नशे की आग सुलगा दे
हकीकी इश्क का उस पर नुमायाँ ताज देखेंगे
बड़ी बाजीगरी देखी कबूतर बाज भी देखे
शरारत से कभी भी जो न आये बाज देखेंगे
ज़रा तारीफ़ क्या कर दी हजारों रंगतें बिखरीं
अभी क्या है अभी तो हम गुलाबी लाज देखेंगे
मुबारक हुस्न हो तुमको दमकती रूह है तेरी
मगर बजता है मन कैसा सुरीला साज देखेंगे
बहुत सी जंग जीती है बहुत अरमान है निकले
मगर हो इश्क के कैसे बड़े जांबाज देखेंगे
न तेरा रूप है कोई हँसी कोई न सूरत है
विसाले यार हो जाए तो क्या सरताज देखेंगे ?
जिसे भी इश्क है उससे उसी का है नशा तारी
चलो ‘गोपाल’ अब हम सब उसे मुमताज देखेंगे
(मौलिक् और अप्रकाशित )
Comment
बह्र खूब निभाई है
बह्र के हवाले से दाद हाज़िर है
आ० वीनस भाई
अभी बच्चा हूँ सीख रहा हूँ , आपकी हिदायते बनी रहे , हो सकता है कभी अच्छा भी लिख सकूं. सादर .
नमस्कार
इस रचना को तीन दिनों से पढ़ रहा हूँ पहले कुछ अन्य टिप्पणियों का इंतज़ार था क्योकि यदि कोई चर्चा शुरू हो जाए तो अन्य पाठकोण की पाठकीयता प्रभावित होती है
ग़ज़ल पर आपकी लगातार आ रही प्रस्तुतियों से तुलना करने पर आपकी यह प्रस्तुति मुझे कुछ औसत लगी
ऐसा नहीं है कि यह ग़ज़ल खराब हो या हर शेर में कुछ कमी ही हो परन्तु कभी कभी ऐसा होता है कि अपनी पिछली रचनाओं की श्रेष्ठता ही हावी हो जाती है
और पाठक तो पिछली रचनाओं से ही तुलना करेगा ...
हाँ यह अवश्य है कि इस ग़ज़ल के कुछ शेर ऐसे बन गए हैं जिनका कोई ख़ास लुत्फ़ नहीं मिला और लगा कि ग़ज़ल में अशआर की संख्या बढाने के अतिरिक्त और कोई प्रयोजन नहीं है
आ० विजय सर
आभार सादर .
नशे में हैं नशा बांटे नशे की आग सुलगा दे
हकीकी इश्क का उस पर नुमायाँ ताज देखेंगे।
बहुत खूब, बधाई , आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी, सादर।
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