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ग़ज़ल : रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

 

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

 

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको

हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

 

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें

पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

 

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में

यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

 

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना

वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है

------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 1, 2015 at 6:46pm

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना

वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है   -- क्या बात है , आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हमेशा की तरह आपने रदीफ बड़ा कठिन चुना है , और सरलता से बिबाह लिया है ! वाह ,  दिली बधाइयाँ आपको ॥

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 1, 2015 at 6:46pm
बहुत खूब
Comment by shree suneel on July 1, 2015 at 6:37pm
आदरणीय धर्मेंद्र जी, कठिन रदीफ़ वाली इस ग़ज़ल के लिए बधाई आपको .
Comment by Shyam Narain Verma on July 1, 2015 at 5:00pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………
Comment by Sushil Sarna on July 1, 2015 at 3:28pm

खूबसूरत अशआर वाली  ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई,आदरणीय धर्मेन्द्र जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 1, 2015 at 1:49pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी,

बहुत बेहतरीन मुसल्‍सल ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद हाज़िर है 

इस शेर पर विशेष दाद कुबूल फरमाएं 

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना

वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है

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