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प्रस्तुति पर सार्थक चर्चा हो रही है. अच्छे सुझाव भी आये हैं. अनुकरण करना श्रेयस्कर होगा, आदरणीया
सादर शुभकामनाएँ ..
आ. kanta roy जी, कौन ,किससे कह रहा ये स्पष्ट कर दें ,ऐसा मैंने आपके किसी लघुकथा पर कहा था ,,जिससे संवादों पर ज्यादा दिमाग न लगाना पड़े ,,,मुझे यही लगता है ,,, ,मुझे ये समझ नही आया की ,,,आप सन्देश क्या देना चाहती हैं ,,,कृपया स्पष्ट करें |
आदरणीया कान्ता जी,
सुन्दर भाव के साथ कथा आयी है. मिथिलेश जी के विचार ध्यान देने लायक हैं.
शीर्षक के साथ दो औरतों का वार्तालाप सम्बन्ध नहीं जोड़ पा रहा है.
//उधर माँ के स्वप्न.. हुँह !!!// ये अभिजात्य वर्ग की औरतों का बाई के प्रति नजरिया बतलाता है. जिसे शायद कथा में प्रमुखता नहीं दी गयी है.
यहां बाई याने माँ की मेहनत और बेटे के पैसा लुटाने के तरीके पर थोडा़ ज्यादा विस्तार दिया जा सकता था. जिससे ब्राण्डेड समान के मोह के साथ जोड़ने की बात स्पष्ट हो जाती.
वैसे ब्राण्ड के साथ ज्यादातर अभिजात्य वर्ग ही जाता है, और वैसे घरों के बिगडे़ लड़कों को शायद ब्राण्डेड मवाली कह सकती हैं.
सादर.
आदरणीया , आपकी लघुकथा में सच मे वो बात नही आयी जो आपकी अन्य कथा मे होती है , मै चूँकि जानकार नही हूँ और कुछ नही कह सकता । प्रयास के लिये आपको हार्दिक बधाई ।
आदरणीया कांता जी,
इस लघुकथा को मैंने कई बार पढ़ा
संशोधन के बाद भी पढ़ा ( ये संशोधन -दो बार दसवीं में फेल होकर बडी मुश्किल से बारहवीं में सप्लीमेंटरी से पास हुआ है )
इन सबके बावजूद मैं लघुकथा के शीर्षक के आशय और लघुकथा के मर्म तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ.
अंतिम पंक्ति सोचने के लिए तो विवश कर रही है पर क्या सोचना है ये समझ नहीं पा रहा हूँ.
इस विधा और इसके शिल्प हेतु बिलकुल नया अभ्यासी हूँ इसलिए मार्गदर्शन चाहता हूँ.
सादर
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