कम्पनी में गबन के आरोप में वह आज पांच साल की कैद काट कर वह जेल से छूटा तो सीधे दिव्या के घर पहुँचा । दिव्या नहीं मिली । वह काम पर गई थी । उसने उसके मोबाइल पर उसी जगह मिलने का समय दिया जहाँ वह अक्सर मिला करते थे ।
"मुझे भूल जाओ तुम । अब मेरी जिंदगी में तुम्हारे लिये कोई जगह नहीं है ।" सिगरेट सुलगाते ही उसकी आवाज सुनाई दी ।
"पर यह सब तो मैंने तुम्हारी ख़ुशी के लिये किया था ? " सुनते ही उसका दिल रो पडा जैसे ।
"मेरी ख़ुशी या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये ....! मेरी ख़ुशी तो तुम्हारी बाहों में थी ना कि तुम्हारी कैदखाने की ज़िन्दगी में ...मेरी कितनी रूसवाई हुई विनय ..! घर वालों से लेकर मोहल्ले वालो तक ...! "
"लेकिन ..! "
"लेकिन क्या ... , मेरी अब शादी हो गई है और बीतीं बातों को यही दफन करो । आज के बाद मुझसे मिलने की कोशिश भी ना करना। । "
दिव्या के कहे शब्द उसके सीने को बींध गये ।
सिगरेट अपनी पहली व दूसरी उँगलियों के मध्य दबी तेज रफ़्तार से जली जा रही थी । राख अभी भी सिगरेट के साथ चिपकी हुई थी ।
अचानक उसकी ऊँगली जली और उसने हाथ को झटका सिगरेट से बची राख भी उसकी ज़िन्दगी की तरह जमीन पर बिखर हुई थी ।
दिव्या वहां से कब गई उसे पता ही नहीं चला ।
फिल्टर के कश में जिंदगी को फूँक राख करने को निकल पडा़ ।
मौलिक व अप्रकाशित ।
Comment
धन्यवाद आ. सौरभ सर,मिथिलेश सर, आ. कांता दी उत्साहवर्धन हेतु सादर धन्यवाद
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय पंकजजी. इंगितों का सुन्दर प्रयोग हुआ है. हार्दिक बधाई.
धन्यवा परम आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , आ. कांता जी , आ. मिथिलेश वामनकर जी
आदरणीय , पंकज भाई , लघुकथा अच्छी लगी ! हार्दिक बधाई । शायद कुछ और लघु हो सकती थी , मै बहुत नहीं जांता लघु कथा के विषय मे , पर ऐसा लगा !
आदरणीय पंकज जी
इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
लघुकथा का अधिकांश भाग प्रतीक की स्थिति को वर्णित करने में लग गया है.
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