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गज़ल - फिल बदीह - कभी पत्थर नहीं देता ( गिरिराज भंडारी )

122     122    122    122

जहाँ वाले यूँ तो बताते रहे हैं

हमी अपनी ख़ामी छुपाते रहे हैं

वो अमराई , झूले वो पेड़ों के साये

बहुत देर तक याद आते रहे हैं

यूँ शह्रों की रोटी ने दी ज़िन्दगी है

मगर गाँव हमको लुभाते रहे हैं

क़दम दर क़दम इन थके पाँव को हम

महज़ ख़्वाबे मंज़िल दिखाते रहे हैं

ये बेहूदे पन अहदे नौ के हमेशा

मेरी सोच को बस सताते रहे हैं

ये कैसी मुहब्बत , ये कैसी वफा है

है अंदर नहीं पर जताते रहे हैं

ख़ुदाया तेरे नूर में भीगने, हम

ख़ुदी को हमेशा जलाते रहे हैं

*******************************

मैलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by vijay nikore on July 8, 2015 at 6:22pm

अच्छी गज़ल के लिए बधाई।

Comment by Nidhi Agrawal on July 8, 2015 at 5:43pm

यूँ शह्रों की रोटी ने दी ज़िन्दगी है

मगर गाँव हमको लुभाते रहे हैं

वाह वाह बहुत सुन्दर अश अअर हुवे हैं 

ख़ुदाया तेरे नूर में भीगने, हम

ख़ुदी को हमेशा जलाते रहे हैं

क्या बात क्या बात 

!! दिल जीत लिया आदरणीय 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 4:01pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 8, 2015 at 3:47pm

आदरणीय गिरिराज सर, बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 11:23am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया , कोई सलाह हो तो ज़रूर दिया कीजिये , आपसे बहुत कुछ सीखना है ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 8, 2015 at 11:17am

अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय गिरिराज जी, दाद कुबूल करें

कृपया ध्यान दे...

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