1222 1222 1222 122
क़रीब आ ज़िन्दगी, तुझको समझना चाहता हूँ
मैं ज़र्रा हूँ , तेरी बाहों में फिरना चाहता हूँ
समेटा खूब , खुद को, पर बिखरता ही गया मैं
ग़ुबारों की तरह अब मैं बिखरना चाहता हूँ
जमा हर दर्द मेरा एक पत्थर हो गया है
ज़रा सी आँच दे , अब मैं पिघलना चाहता हूँ
तेरी आँखों मे देखी थी कभी तस्वीर खुद की
जमाना हो गया , मै फिर सँवरना चाहता हूँ
लगा के बातियाँ उम्मीद की ,दिल के दिये में
मैं सारी रात , तनहाई में जलना चाहता हूँ
सुना , चुभने लगा है अब उजाला भी किसी को
ख़ुदा हाफिज़ ! यहाँ से अब निकलना चाहता हूँ
बुना मेरे अहम ने जाल , मै ही फँस गया हूँ
तड़पता हूँ , कि मैं बाहर निकलना चाहता हूँ
अगर इंसान कहते हैं इन्हें, जो जी रहे हैं
तो मै इंसान होने से मुकरना चाहता हूँ
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Comment
आदरणीय श्री सुनील भाई , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय कृष्णा भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका आभार ।
जमा हर दर्द मेरा एक पत्थर हो गया है
ज़रा सी आँच दे , अब मैं पिघलना चाहता हूँ
तेरी आँखों मे देखी थी कभी तस्वीर खुद की
जमाना हो गया , मै फिर सँवरना चाहता हूँ
लगा के बातियाँ उम्मीद की ,दिल के दिये में
मैं सारी रात , तनहाई में जलना चाहता हूँ
लाजवाब आदरणीय,शेर दर शेर दाद कुबूल करें!
आ० अनुज
बहुत बढ़िया .
सुना , चुभने लगा है अब उजाला भी किसी को
ख़ुदा हाफिज़ ! यहाँ से अब निकलना चाहता हूँ
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , उत्साहवर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
ख़ूबसूरत अश’आर के लिए दाद कुबूल करें, आदरणीय गिरिराज जी
आ. राहुल भाई , आपका शुक्रिया ।
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