मैं हूँ एक आवारा बादल
और मुझे एहसासों से
तरबतर करता पानी हो तुम
अपने आगोश में ले तुम्हें
मस्त हवाओं से हठखेलियाँ करता
दूर तक निकल जाता हूँ
अपार उर्जा से दमकता
गर्जन करता
इस मिलन का उद्घोष करता हूँ
मगर फिर ना जाने क्यूँ
तुम बिछुड़ जाती हो मुझसे
बरस जाती हो अपने बादल को छोड़
और देखो ...मैं बिखर जाता हूँ
मेरा अस्तित्व ही मिट जाता है
जानता हूँ
इस बंज़र ज़मीन को भी
तुम्हारी प्यास रहती है
अगर तुम न बरसो
तो नया सृजन कैसे हो
मगर लौट आती हो एक बार फिर
सब को भिगो कर अपने अशआरों से
अब लौट आना जल्दी
आ मिलना मुझको
और बना देना मुझको
फ़िर वही काला बादल
जो घड़ घड़ाता
तुम्हें आगोश में ले
प्रफुल्लित चलता है दूर तक....
देखो ...जनम जनम का
हमारा ये निरंतर मिलन नियती भी है
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आप की उपस्थिति एवं सराहना के लिये हार्दिक आभार ...सादर
आदरणीय मोहन सेठी जी प्रकृति के बिम्बों से गहन भावाभिव्यक्ति शाब्दिक हुई है इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
आदरणीया pratibha pande जी आपका हार्दिक आभार ...सादर
आदरणीय Sushil Sarna जी तहे दिल से शुक्रिया आपका ...सादर
मिलन उनकी नियति है और उनका बिछुड़ना धरती की ख़ुशी I बहुत गूढ़ भावों के साथ सशक्त रचना I बधाई स्वीकार करें
अ० मोहन सेठी जी
तुम बिछुड़ जाती हो मुझसे
बरस जाती हो अपने बादल को छोड़
और देखो ...मैं बिखर जाता हूँ
मेरा अस्तित्व ही मिट जाता है
वाह आदरणीय बहुत ही गहन भावों का चित्रण किया आपने … हार्दिक बधाई।
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