अपनी साँसे भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं,
बात इतनी सी मगर दिल से ये निकली ही नहीं |
दिल में आतिश है बहुत ये हुस्न बे जलवा नहीं
चाहता हूँ आग उसमें पर वो जलती ही नहीं |
शाम से शब ग़ैर की ज़ुल्फ़ों में जब करने लगे
रात ऐसी जो हुई फिर सुब्ह निकली ही नहीं |
जब तलक थे हमकदम, अपना सफ़र चलता रहा,
दरिया क़तरा जब हुवा, मंज़िल वो मिलती ही नहीं |
इस कदर रोया हूँ मैं आखें भी धुंधला सी गई,
आज कुछ बूँदे भी आँखों से निकलती ही नहीं |
हर्ष महाजन
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हर्ष महाजन
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत सुंदर आपको हृदय से बधाई स्वीकार हो
आदरणीय Jatinder Aulakh जी आपको मेरी ये रचना पसंद आई उसके आपका बहुत-बहुत शुक्रिया और धन्यवाद !! उम्मीद है आप आगे भी हौंसिला अफजाई करते रहेंगे !!
साभार !!
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी इस छोटी सी कृति पर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए तह-ए-दिल से शुक्रिया और आभार !! मेरे ब्लॉग पर शामिल करने के लिए मेरी ये पहली रचना है | इस पर इंगित दोष के बारे में आप जैसे गुनीजनों का मार्गदर्शन रहेगा तो सही से कहने का साहस और कोशिश ज़रूर करता रहूँगा | इस रचना के बारे में कुछ भी दोष या जानकारी दे सकें तो आभारी रहूँगा | आभार !!
आदरणीय हर्ष महाजन जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई
काफिया में ईता दोष के सम्बन्ध में गुनीजनों से मार्गदर्शन का निवेदन है. सादर
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