1222--1222—1222--1222 |
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लगे बोली सियासत में, भला आम-आदमी का क्या? |
निजाम-ए-मुल्क जो कह दे मगर इस अबतरी का क्या? |
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अगर दो वक़्त की रोटी जुटा पाए तो बढ़िया है. |
वगरना फिर मुझे करना तेरी दीवानगी का क्या? |
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बहुत रंगीन कर बैठे हो नकली-ताजमहलों को |
मगर सबसे जुरुरी है जो उसकी, सादगी का क्या? |
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अगर दे तो मुअज्ज़िज़* फित्रतन् खुद्दार दुश्मन दे *सम्मानित |
मेरे कद का नहीं होगा, तो मतलब दुश्मनी का क्या? |
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मरासिम और कुछ वादें, कभी तुमसे किये थे जो |
निभा लेते, मगर यारों करें कम-फुरसती का क्या? |
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ख़ुदा-हाफ़िज़ अजी कह लूं जरा साहिल से, ठहरो तो |
सफ़र ये है समंदर का, भरोसा वापसी का क्या? |
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बुलाते थे कभी तहजीब से, वो आज कहते है- |
“जो महफ़िल में नहीं आओ, बिगड़ता है किसी का क्या?” |
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ये टुकड़े जिस्म के जलते हुए बिखरे पड़े है क्यों? |
जो मजहब पे सियासत की, ये मंजर है उसी का क्या? |
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अमावस से चरागों की अजल से यारियां, सुन लो, |
कभी सूरज के डूबे से हुआ है रौशनी का क्या? |
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इसी डर में अगर जीते रहे तो जी लिए साहिब |
यकीनन मौत होती है, भरोसा जिंदगी का क्या ? |
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जो झूठी दाद, नाकस वाहवाही के अदीबों में |
रहे उलझे सुखनवर तो, भला हो शायरी का क्या? |
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Comment
आदरणीय कृष्ण भाई जी, आपको ग़ज़ल अच्छी लगी ये जानकार ख़ुशी हुई, ग़ज़ल की प्रशंसा और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार...
आदरणीय दिनेश भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार...
ये टुकड़े जिस्म के जलते हुए बिखरे पड़े है क्यों?
जो मजहब पे सियासत की, ये मंजर है उसी का क्या?
जो झूठी दाद, नाकस वाहवाही के अदीबों में
रहे उलझे सुखनवर तो, भला हो शायरी का क्या?
अगर दे तो मुअज्ज़िज़* फित्रतन् खुद्दार दुश्मन दे
मेरे कद का नहीं होगा, तो मतलब दुश्मनी का क्या?
बेहतरीन मिथलेश सर! गज़ल पर शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएं!
आदरणीय सौरभ सर, शेर में संशोधन के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार्, नमन
हाँ राहत साहब का शेर था. लेकिन अक्षरशः नहीं था मगर ख़याल टकरा रहे थे. यह अकसर होता है. शाइरों के ख़याल टकराते हैं और कई बार ज़मीन एक हो तो मिसरे तक मिल जाते हैं.
आपने संशोधन किया, यह भी बहुत अच्छा है
दाद कुबूल कीजिये ..
आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल का प्रयास आपको अच्छा लगा ये जानकार थोड़ा आश्वस्त हुआ हूँ. आपने सही कहा है डॉ राहत इंदौरी साहब के शेर से ये ख़याल मिल रहा है और लफ्ज़ भी. इसलिए मिसरे में थोड़ा संशोधन किया है, निवेदित है-
अगर दे तो मुअज्ज़िज़ फितरतन् खुद्दार दुश्मन दे
मेरे कद का नहीं होगा, तो मतलब दुश्मनी का क्या?
आपने सही कहा है कि कई ज़गह मिसरों के बीच में कॉमा की ज़रूरत नहीं है, लेकिन यति पे कॉमा लग जाता है. इसमें आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करता हूँ. स्नेह, सराहना और मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक आभारी हूँ नमन, सादर
आदरणीय समर कबीर जी, ग़ज़ल के प्रयास पर आपकी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया सदैव अच्छा लिखने को प्रोत्साहित करती है. आप जैसे शायर से दाद मिलती है तो दिल खुश हो जाता है. आपने सही कहा ख़याल के साथ साथ मिसरे के लफ्ज़ भी उन्हीं की जमीन के लग रहे है इसलिए ख़याल को नए लफ़्ज़ों के साथ कहने का प्रयास किया है, निवेदित है-
अगर दे तो मुअज्ज़िज़ फितरतन् खुद्दार दुश्मन दे
मेरे कद का नहीं होगा, तो मतलब दुश्मनी का क्या?
सराहना और मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक आभारी हूँ सादर
आदरणीय मनोज भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार....बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय मिथिलेशजी, कमाल की कोशिश का परिणाम भी कमाल ही निकलता है. एक सधी हुई ग़ज़ल केलिए हार्दिक बधाई स्वीकार करे.
मुझे रब्बा! अगर दुश्मन भी दे तो खानदानी दे.. क्या ख़याल है ! वाह वाह !
वैसे, भाईजी, ऐसे ख़याल पर शेर मैं सुन चुका हूँ. किसका है वो याद नहीं. वैसे भी मुझे एक शेर याद नहीं है. दूसरों का छोड़िये, अपना भी नहीं. सो अधिक माथा-पच्ची नहीं करता. हा हा हा......
यह ज़रूर है कि कई ज़गह मिसरों के बीच में कॉमा की ज़रूरत नहीं है. फिर भी शिकस्ते ना’रवा को डिस्टिंक्ट करने का मोह शायद ऐसा करने से रोक न पाया.. :-))
वगरना फिर मुझे करना, तेरी दीवानगी का क्या? में से कॉमा हटा कर देखिये. बात सहज ही खुल कर आयेगी.
अच्छी ग़ज़ल केलिए ढेरों दाद कुबूल कीजिये.
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