लघुकथा – इच्छा
“ आज ऐसा माल मिलना चाहिए जिसे मेरे अलावा कोई और छू न सके,” कहते हुए ठाकुर साहब ने नोटों की गड्डी अपनी रखैल बुलबुल के पास रख दी और वहां से उठा कर हवेली के अपने कमरे में चल दिए.
“ जी सरकार ! इंतजाम हो जाएगा, ” कहते ही बुलबुल को याद आया कि सुबह ठकुराइन ने कहा था, ‘ बुलबुल बहन ! ठाकुर साहब तो आजकल मेरी और देखते ही नहीं. मैं क्या करूं ? ताकि उन को पा सकूं ? ’
यह याद आते ही उस की आँखों में चमक आ गई. उस ने नोटों से भरा बेग उठाया. फिर गुमनाम राह पर जाते-जाते ठाकुर और ठकुराइन को यह खबर भेज दी कि आज आप दोनों रात को दस बजे उस के अँधेरे कमरे में आ जाए, “ आप की इच्छा पूरी हो जाएगी.” और बुलबुल उड़ गई.
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मौलिक और अप्रकाशित
Comment
मेरे कहे का मर्म समझने केलिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया अर्चनाजी.
आदरणीय ओमप्रकाशजी, इस लघुकथा के संशोधित स्वरूप में संभवतः वह सब है जो एक लघुकथा में होना चाहिये. लेकिन वह संवेदना भी होनी चाहिये कि ऐसी लघुकथाएँ किस पाठक वर्ग के लिए हैं.
साहित्य का लक्ष्य मनुष्य और समाज है. लेकिन जो समाज लघुकथा में है वह सामंती समाज कमसेकम अब आम नहीं रह गया है, न रखैल या कुटनी स्त्री या रक्कासा इस कदर जीवन का हिस्सा हैं. स्वरूप बदल गया है. धन और धनपशु मेट्रोज में ’एस्कोर्ट्स’ के फेर में हुआ करते हैं. आप स्वयं समझदार है.
शुभ-शुभ
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आप ने मेरी त्रुटि की और ध्यान दिलाया. अभारी हूँ. मगर इसे में सुधार करता हूँ तो फिर यह अप्रूवल में जाएगी. इसलिए सुधार नहीं कर पा रहा हूँ. ( आजकल मेरी और / ओर देखते ही नहीं)
बहुत बढ़िया संशोधन हुआ है आदरणीय ओमप्रकाश जी. लघुकथा अपने मर्म को अभिव्यक्त करने में सफल तो थी किन्तु गठन और आपकी कहन का जादू नज़र नहीं आ रहा था. अब संशोधन के बाद कल्पनाओं की छौंक ने सहज सम्प्रेष्य भी किया है और सौन्दर्य को भी निखारा है. आपको इस प्रस्तुति और शानदार संशोधन के लिए हार्दिक बधाई.
एक जगह टंकण त्रुटी विघ्न पैदा कर रही है- आजकल मेरी और / ओर देखते ही नहीं
सादर
आदरणीय सुधीजनों से निवेदन है की अब लघुकथा पर अपनी प्रतिक्रिया दे कर बताए कि लघुकथा में कुछ जान आई या नहीं.
लघुकथा – इच्छा
“ आज ऐसा माल मिलना चाहिए जिसे मेरे अलावा कोई और छू न सके,” कहते हुए ठाकुर साहब ने नोटों की गड्डी अपनी रखैल बुलबुल के पास रख दी और वहां से उठा कर हवेली के अपने कमरे में चल दिए.
“ जी सरकार ! इंतजाम हो जाएगा, ” कहते ही बुलबुल को याद आया कि सुबह ठकुराइन ने कहा था, ‘ बुलबुल बहन ! ठाकुर साहब तो आजकल मेरी और देखते ही नहीं. मैं क्या करूं ? ताकि उन को पा सकूं ? ’
यह याद आते ही उस की आँखों में चमक आ गई. उस ने नोटों से भरा बेग उठाया. फिर गुमनाम राह पर जाते-जाते ठाकुर और ठकुराइन को यह खबर भेज दी कि आज आप दोनों रात को दस बजे उस के अँधेरे कमरे में आ जाए, “ आप की इच्छा पूरी हो जाएगी.” और बुलबुल उड़ गई.
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