“रंजना ! ये मोबाइल छोड़ दे. चार रोटी बना. मुझे विद्यालयों में निरिक्षण पर जाना है. देर हो रही है.”
रंजना पहले तो ‘हुहाँ’ करती रही. फिर माँ पर चिल्ला पड़ी, “ मैं नहीं बनाऊँगी. मुझे आज प्रोजेक्ट बनाना है. उसी के लिए दोस्तों से चैट कर रही हूँ. ताकि मेरा काम हो जाए और मैं जल्दी कालेज जा सकू.”
तभी पापा बीच में आ गए, “ तुम बाद में लड़ना. पहले मुझे खाना दे दो.”
“क्यों ? आप का कहाँ जाना है ? कम से कम आप ही दो रोटी बना दो ?” माँ ने किचन में प्रवेश किया.
“हूँउ ! तुझे क्या पता. आज मेरे ऑफिस में आडिटर आ रहा है. इसलिए जल्दी जाना है.”
यह सुनते ही वह चिल्लाते हुए पलटी , “ पहले कहना था. सब ठेका मेरा ही है.”
पापा पीछे थे. उन के हाथ के गिलास से पानी छलका. गर्म तवे पर गिर कर उछलने लगा. कटोरे में पड़ी रोटी पेट में जाने का इंतजार करती रह गई और माँ के कान में भी अपने कहे यही शब्द गूंजते रहे, “ पहले कहना था.”
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०७/०८/२०१५ ( मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय सौरभ जी आप की समीक्षात्मक टिपण्णी लघुकथा के हर पक्ष को उजगार कर देती है । आप ने जिस बढ़िया तरीके से लघुकथा पर प्रकाश डाला ,वह मेरे लिए अनमोल है । इस हेतु आप का शुक्रिया ज्ञापित करना भी बहुत छोटा महसूस हो रहा है ।
आभार ।
ये सारा कुछ मिनटों में हो गया होगा लेकिन इनकी अनुगूँज देर तक बनी रहती है. इस तरह की परिस्थितियाँ अब आम परिवारों की हो गयी है जहाँ सभी सदस्य अपनी-अपनी चर्या के प्रति आग्रही हैं.
प्रस्तुत लघुकथा संवादों के माध्यम से जिस तनावमय वातावरण का निर्माण करती है वह बिना कुछ कहे बहुत कुछ इंगित करता है.
हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय.
परिवारों में आपाधापी से आये दिन होते तनाव पर सुंदर लघु कथा के लिए बधाई
बहुत बढिया लघुकथा, आदरणीय हार्दिक बधाई!
आदरणीय ओमप्रकाश जी आज के यथार्थ के अनुरूप शीर्षक को सार्थक करती बढ़िया लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
सब अपने -अपने में व्यस्त हैं आजकल ..नेट और चैट इस तनाव में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं हर तीसरे घर में यही वातावरण है आजकल
लघु कथा में इसी आपधापी का सजीव चित्रण किया है आपने आ० ओमप्रकाश जी ,बहुत बढ़िया बहुत -बहुत बधाई.
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