गज़ल........122, 122, 122, 122
तुम्हारी कसम बेसहारा नहीं हूँ.
महज़ इक गज़ल हित आवारा नहीं हूँ.
सँवारे ज़मी आस्माँ चाँद तारें
वही इक जुगनू बेचारा नहीं हूँ.
गली घाट घर गाँव सबका सहारा
सजग कौम कुत्ता दुलारा नहीं हूँ.
लगी आग महलों दुमहलों में जब भी
बुझाया हमेशा लुकारा नहीं हूँ.
सकल जीव मे आत्मा एक सत्यम
सदा सच कहूं इक तुम्हारा नहीं हूँ.
के0पी0 सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित
Comment
ग़ज़ल का अभ्यास अच्छा लगा केवल प्रसादजी. आपकी ग़ज़ल पर बहुत ही सार्थक टिप्पणी आ. मिथिलेश भाई ने की है. आप लाभ ले सकते हैं.
शुभेच्छाएँ
इस प्रस्तुति पर बधाई आ० बड़े भाई केवल जी! बाकि बातें आदरणीय मिथलेश सर ने कह ही दी हैं!
आ0 वामनकर भाईजी, सादर प्रणाम! अगर आप बह्र के दृष्टि से देख रहे हैं, तो सही है. है.कुत्ता और लुकारा भी सही है. हां, यदि कहन की दृष्टि से कुछ गुंजायिश है तो वह आप सुधीजनो के हवाले मैं सदा ही सीखने को तत्पर हूं. आपका तहेदिल से शुक्रिया, आभार. सादर
आदरणीय केवल जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.
आपकी बेहतरीन रचनाये पढ़ी है इसलिए इन कारणों से अशआर के मिसरा-ए-सानी से संतुष्ट नहीं हो पा रहा हूँ.
महज़ इक गज़ल हित आवारा नहीं हूँ........... बह्र के हवाले से
वही इक जुगनू बेचारा नहीं हूँ...................बह्र के हवाले से
सजग कौम कुत्ता दुलारा नहीं हूँ..................कुत्ता के प्रयोग से
बुझाया हमेशा लुकारा नहीं हूँ................लुकारा के प्रयोग से
हो सकता है मेरी समझ का फेर हो. पुनः बधाई ....सादर
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