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ग़ज़ल -- उछाल के बिजली के तार पर (मिथिलेश वामनकर)

221 2121 1221 212

 

अपनी ख़ुशी उछाल के बिजली के तार पर

रौशन किया है देखिये घर  जोरदार पर

 

आसान लग रहा है अगर तै सफ़र मियां

तो जिंदगी ये आपकी समझो उतार पर

 

अब कुछ नहीं तो तज्रिबा हासिल हुआ हमें

जोखिम उठा के जो किया बोसा कटार पर

 

रंगों ने सादगी को जो रंगीन कर दिया

तो सादगी से रंग भी आये निखार पर

 

तुमको हुनर मिला है ये उसका ही है फज़ल

फनकारियां हुई है उसी के उधार पर

 

रखना जुबान पाक, ये मुमकिन है फिर कभी 

वापिस वही मिलेगी तेरी हर पुकार पर

 

इक बार में कुबूल न हो पाई जो  दुआ

अपने दिए को यार रखो फिर मज़ार पर

 

जो सुन रहा है आज तरन्नुम भी शोर में

होगी नई मिसाल उसी खाकसार पर

 

‘वादा लिया कि ख़्वाब, हकीक़त करोगे तुम’

यूं बोझ रख दिया है किसी होनहार पर

 

मज़हब अलग-अलग है इबादत अलग-अलग

सुन लो सभी का एक है परवरदिगार पर

 

हर एक शै जो आज अदीबों को दिख रही

कल ये जहां करेगा अमल उस्तुवार पर

 

परवाज़ है बुलंद मगर देखिये जरा 

आता है लौट कर वो परिन्दा दयार पर

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------------

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 13, 2015 at 2:56pm

आदरणीय आमोद जी हार्दिक आभार 

Comment by Ravi Shukla on August 13, 2015 at 2:51pm

आदरणीय मिथिलेश जी

आपकी ग़ज़ल के माधुर्य के लिये और सभी अश्‍आर के लिये दिली दाद कुबूल करें आदरणीया राजेश जी और आदरणीय गिरिराज जी के सुझावसे लय और भी निखर रही है । केवल एक निवेदन हमारा है

शोर में तनन्‍नुम सुनना और शोर  मे तनन्‍नुम भी सुनना दो अलग अलग सामर्थ्‍य की बात है आप इसे कैसे लेते है यह आप पर निर्भर है ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 13, 2015 at 12:01pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , अच्छी गज़ल कही है , दिली बधाइयाँ कुबूल कीजिये ।

आदरणीया राजेश जी की सलाह उचित है , ख्याल कीजियेगा । इसके साथ ही अगर आपको अच्छा लगे तो -

आसान लग रहा है अगर तै सफ़र मियां

तो जिंदगी ये आपकी समझो उतार पर  ---   तो जिंदगी को आप समझ लें उतार पर   -  ऐसा कर सकते हैं 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 13, 2015 at 11:02am

आ० मिथिलेश भाई, सुन्दर गजल हुई है हार्दिक बधाई .आ० राजेश बहन की बात से में भी सहमत हूँ ये दोनों शेर कुछ और समय चाहते हैं .ऐसा मुझे भी लगता है . शेष शुभ शुभ ......


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 13, 2015 at 10:36am

मिथिलेश भैया इसमें कोई शक नहीं की ग़ज़ल हर बार को तरह शानदार है हर शेर उम्दा है किन्तु इन मिसरों में मुझे आपकी कुछ जल्दी बाजी झलक रही है ---जैसे 

इक बार में कुबूल जो नहीं हुई दुआ-----इक बार में कुबूल न हो पाई जो  दुआ--कर सकते हैं 

अपने दिए को यार रखो फिर मज़ार पर

 

जो सुन रहा है शोर में भी आज तरन्नुम-----जो सुन रहा है आज  तरन्नुम भी शोर में ----करके देखिये 

परवाज़ है बुलंद मगर देख परिन्दा----परिंदा शायद १२२ होता है आपने २१२ में बाँधा है इस पर संशय है -------------------------------------------परवाज है बुलंद मगर देखिये जरा ,

आता है लौट कर वो  परिंदा  दयार पर-----ऐसा कुछ कर सकते हैं 

बहरहाल बहुत- बहुत बधाई लीजिये 

 

Comment by amod shrivastav (bindouri) on August 13, 2015 at 10:04am
बहुत ही सुन्दर सर
बधाई

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