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घटायें(गजल)
2212 2212 2212
उड़ती घटायें आ चली जातीं कभी,
बरसीं नहीं,ना देख नहलातीं कभी।
चक्कर चलाती हैं हवा के संग वे,
रूप पर उछलतीं खूब इतरातीं कभी।
घूमीं घटायें घात में, बेबाक कब?
रहतीं सदा उड़ती कहीं जातीं कभी।
तू तो रहा उम्मीद पाले बूँद की,
आँखें तरस जातीं,घटा भाती कभी।
बदलीं घटायें बार कितनी कह सकोगे?
बदली भिंगोती प्यार ले छाती कभी।
तूने कहा सुन लो घटाओ पास आ,
बेख़ौफ़ यूँ उड़ती ठहर पाती कभी!
रूप की उड़ी पाती घटायें हैं सही,
भरतीं कहीं वे नेह नहलातीं कभी!
"मौलिक व अप्रकाशित"@मनन

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Comment

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Comment by Manan Kumar singh on August 23, 2015 at 10:21am
आदरणीय गोपल भाई,मेरे प्रयास को प्रेरणा देने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद ज्ञापित है।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2015 at 5:47pm

आ०  मनन जी

अच्छी गजल के लिए बधाई .

Comment by Manan Kumar singh on August 20, 2015 at 7:02am
श्रद्धेय गिरिराज भाई नमन!देखकर सुधर करता हूँ।
Comment by Manan Kumar singh on August 20, 2015 at 7:01am
आदरणीय मिथिलेश जी,बहुत आभार आपका
Comment by Manan Kumar singh on August 20, 2015 at 7:00am
आदरणीया कांता जी आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 20, 2015 at 6:48am

आदरणीय मनन भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

अंतिम शेर मे आपने - रूप की पात्रा 2 ली है  , जबकि  रूप की मात्रा - 21 लेनी चाहिये , इस लिहाज़ से वो मिसरा बेबह्र लग रहा है ,एक बार और  सोच लीजियेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 18, 2015 at 2:22pm

इस ग़ज़ल की प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय मनन जी 

Comment by kanta roy on August 18, 2015 at 8:25am
वाह !!! बढिया गजल हुई है आदरणीय मनन कुमार जी । बधाई स्वीकार करें ।

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