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कुहुकती है कोयलिया अमराइयों में
महकते कई फूल पुरवाइयों में
दिखाई न दी आज दीवार उनकी
अजी, क्या सुलह हो गई भाइयों में ?
ग़मों के भँवर में जो खोया था बचपन
मिला आज यादों की परछाइयों में
पिघलते हों पत्थर धुनें जिनकी सुनकर
फुसूँ हमने देखा वो शहनाइयों में
उजाले में दिन के छुपे रहते बुजदिल
उमड़ते वही अब्र तन्हाइयों में
न कद से समंदर की औकात परखो
छुपा है खजाना तो गहराइयों में
वफ़ा आज जाने कहाँ को गई है
न है बांकपन में न रानाइयों में
पिता माँ बहन नाज करते थे जिसपर
मिला आज बेटा वो बलवाइयों में
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
प्रिय तनूजा जी,आपका दिल से आभार |शुभकामनायें
आ० गिरिराज जी ,आपकी दाद मेरे लिए अमूल्य है तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .
आ० रवि शुक्ला जी ,आपका तहे दिल से बहुत- बहुत आभार .
आ० श्याम नारायण वर्मा जी ,इस उत्साह वर्धन के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया |
बहुत सुन्दर ग़ज़ल मै'म वाह वाह I बधाई I
आदरनीया राजे श जी , अक और अच्छी अज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई! |
आ० समर कबीर भाई जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपकी शैर दर शैर दाद पाकर मन उत्साहित है आपकी इस नवाजिश का तहे दिल से शुक्रिया |आपकी इस्स्लाह का स्वागत है मैं लिखते हुए यही सोच रही थी कि जैसे कोई के को की मात्रा को गिराकर लघु कर सकते हैं तो क्या कोयलिया का भी कर सकते हैं ,पूर्णतः आश्वस्त नहीं थी इस लिए ये लिखा था अब आपकी इस्स्लाह को देखते हुए इसे संशोधित करना ही ठीक होगा क्यूंकि आपका मिसरा ज्यादा प्रभावशाली लग रहा है आपका आभार भाई जी
आ० सुशील सरना जी,आपकी दाद पाकर ग़ज़ल धन्य हो गई अभिभूत हूँ दिल की गहराइयों से आपका आभार |
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