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राजधानी में ब्लैक होल (कविता)

देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ

हर आकाशगंगा के केन्द्र में

बैठा हुआ एक ब्लैक होल

 

किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा

अपने आसपास मौजूद तारों को

अपने इशारों पर नचाता हुआ

 

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है

फिर भी वो चमचमा रहा है लगातार

उनके प्रकाश से

जो शिकार हो रहे हैं

उसकी कभी न खत्म होने वाली भूख का

 

ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता है

जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता

हमेशा बढ़ती है

 

ब्लैक होल

दुनिया की सबसे अराजक व्यवस्था है

फिर भी ये बाहर से देखने पर

ब्रह्मांड की सबसे शालीन व्यवस्था लगती है

क्योंकि इसे अपना बाहरी तापमान नियंत्रित रखना आता है

 

ये सूचनाएँ नष्ट तो नहीं कर सकता

लेकिन सूचना के अधिकार से प्राप्त सूचनाओं से

इसके भीतर की कोई भी जानकारी

बाहर नहीं आ सकती

 

लेकिन मैं निराश नहीं हूँ

मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन

हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर

बाहर ले ही आएँगें

इसके भीतर भरी जानकारियाँ

भले ही ऐसा होने पर

व्यवस्था में आम आदमी का भरोसा जड़ से उखड़ जाय

 

अँधेरे में किया गया विश्वास भी

आख़िर अंधविश्वास ही होता है

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 6, 2015 at 8:28pm

आदरणीय सौरभ जी, इस रचना पर आने और अपने विचार रखने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। आपकी बात बिल्कुल सही है ये पंक्तियाँ सैद्धांतिक रूप से ग़लत हैं।

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है

फिर भी वो चमचमा रहा है लगातार

उनके प्रकाश से

जो शिकार हो रहे हैं

उसकी कभी न खत्म होने वाली भूख का 

मैं इनमें बदलाव करूँगा।

दर’असल ब्लैक होल के चारों तरफ एक प्रभामंडल होता है जो ग्रेविटेशनल लेंसिग के प्रभाव के कारण बनता है। मैं लिखना कुछ और चाहता था और लिख कुछ और गया। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद। 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 3:37pm

वैज्ञानिक शब्दावलियों के प्रयोग से रचना-कौतुक करना आपका प्रिय चसका रहा है, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. इस प्रस्तुति में भी आपने अपने प्रिय विषय ’व्यवस्था-परिवर्तन’ को शाब्दिक किया है. 

लेकिन मैं निराश नहीं हूँ

मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन

हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर

बाहर ले ही आएँगें

ऊष्मा-गतिकी (Thermodynamics) के तीसरे सूत्र का तो कमाल का उपयोग हुआ है .. :-))

ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता है

जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता

हमेशा बढ़ती है

और, ये पंक्तियाँ भी कितनी सही हैं, और कितनी प्रासंगिक भी ! --

अँधेरे में किया गया विश्वास भी

आख़िर अंधविश्वास ही होता है

उपर्युक्त पंक्तियों के सापेक्ष यह भी सत्य है कि कुछ समूह विशेष हैं, जो ’ब्राह्मणवाद’ के परोकार हैं. समाज में विशिष्ट ’ब्राह्मणवादी-प्रवृति’ के नेताओं के प्रभावी होने का षडयंत्रकारी कारण हैं. 

लेकिन कृष्ण-विवर (ब्लैक होल) को लेकर निम्नलिखित पंक्तियाँ सैद्धांतिक रूप से गलत हैं. या, पुनः देख लिये जाने योग्य हैं - 

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है

फिर भी वो चमचमा रहा है लगातार

उनके प्रकाश से

जो शिकार हो रहे हैं

उसकी कभी न खत्म होने वाली भूख का 

रेखांकित पंक्ति तो किसी उपग्रह केलिए उचित संभव है, आदरणीय ! कृष्ण-विवर तो अव्वल प्रतीत ही नहीं होता. क्यों कि इसकी ’गुरुता’ इतनी अधिक (अत्युच्च) होती है कि यह प्रकाश की कोई तरंग तक परावर्तित नहीं करता. तथाकथित रूप से ’सोख’ लेता है. यही कारण है कि यह दृष्यमान ही नहीं होता.

या, आप कुछ विशेष कहना चाह रहे हैं ?

आपकी इस कविता के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ..

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 3, 2015 at 11:16pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 3, 2015 at 11:15pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 3, 2015 at 11:15pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीया प्रतिभा जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 3, 2015 at 6:18pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत ही शानदार प्रस्तुति हुई है. इस सशक्त रचना पर हार्दिक बधाई 

Comment by Shyam Narain Verma on September 3, 2015 at 10:44am
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
Comment by pratibha pande on September 3, 2015 at 10:28am
ब्लैक होल का प्रतीक लेकर ये जो आपने व्यवस्था पर चोट करी है ,ये आपकी रचनाधर्मिता की उंचाइयां बयाँ करती है ,और ये third law of thermodynemics कवितामय होकर क्या ही सरल लग रहा है भई वाह ,बधाई आपको धर्मेन्द्र जी इस उत्कृष्ट रचना के लिए

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