अतिशय उत्साह
चाहे जिस तौर पर हो
परपीड़क ही हुआ करता है
आक्रामक भी.
व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है
यही उसकी उपलब्धि है
जड़हीनों को साथ लेना उसकी विवशता
और उनके ही हाथों मुहरा बन जाना उसकी नियति
मुँह उठाये, फिर, भारी-भरकम शब्दों में अण्ड-बण्ड बकता हुआ
अपने वायव्य सिद्धांतो को बचाये रखने को वो
इस-उस, जिस-तिस से उलझता फिरता है.
भाव और रूप.. असंपृक्त इकाइयाँ हैं
तभी तक, लेकिन, सहिष्णुता के प्रमाद में
’ब्राह्मणवाद’ का मुखौटा न धार लें
जो सोच और स्वरूप में डिस्क्रिमिनेशन को हवा देता है
स्वयं को ’श्रेष्ठ’ समझने और समझवाने का कुचक्र चलता हुआ
अपनी प्रकृति के अनुसार ही !
फिर निकल पड़ता है हावी होने
अपने नये रूप और नयी चमक के साथ
पूरे उत्साह में !
’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है
अतिशय उत्साह में..
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-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, जिसे आप हवा का रुख ( वायु की गति ) कह रहे हैं उसे वर्तमान परिवेश में राजनैतिक रुख के रूप में भी देखा जा सकता है। राजनीति का यह स्वरुप , जहां हर क्षेत्र में , विशेषत : हर सामाजिक क्षेत्र में , राजनीति इतनी हावी होगी शायद किसी ने कभी सोचा ( कल्पना भी न की होगी ) भी न होगा। जबकि दो बातें सदैव याद रखनी चाहिए , राजनीति समाज का अंग होता है , समाज राजनीति का अंग नहीं, द्वितीय , राजनैतिक फैसले स्थायी नहीं होते हैं।
सम्प्रति , आपको इस सारगर्भित , अतुकांत रचना के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं , सादर।
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