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प्यार/लघुकथा /कान्ता राॅय

पति को आॅफिस के लिये विदा करके ,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढने को अखबार उठाया , कि दरवाजे की डोर बेल बज उठी ।
"इस वक्त कौन हो सकता है !" सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानों साँप सूँघ गया । पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी । सामने प्रतीक खड़ा था ।

"यहाँ कैसे ?" खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होठों पर आकर ठहरे थे ।

"बनारस से हैदराबाद तुमको  ढूंढते हुए बामुश्किल पहुँचा हूँ ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था । सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था ।
"आओ अंदर, बैठो ,मै पानी लाती हूँ ।"

"नहीं , मुझे पानी नहीं चाहिए, मै तुम्हें लेने आया हूँ , चलो मेरे साथ । "

"मै कहाँ , मै अब नहीं चल सकती हूँ कहीं भी ।"

"क्यों, तुम तो मुझसे प्यार करती हो ना !"

"प्यार ! शायद दोस्ती के लिहाज़ से करती हूँ ।"

"तुम्हारी शादी जबरदस्ती हुई है ।हमें अलग किया गया है । तुम सिर्फ मुझे प्यार करती हो ।"

"नहीं, तुम गलत सोच रहे हो प्रतीक । मै उस वक्त भी तुमसे अधिक अपने मम्मी - पापा से प्यार करती थी ,इसलिए तो उनके प्यार के आगे तुम्हारे प्यार का वजूद कमजोर पड़ गया । "

"लेकिन जिस इंसान से तुम्हारी शादी हुई उससे प्यार ......"

"बस, अब आगे कुछ ना कहना , वो मेरे पति है और मै सबसे अधिक उन्हीं से प्यार करती हूँ ।उनसे मेरा जन्मों का नाता है । "

"और मै, मै कहाँ हूँ ?  "

"तुम दोस्त हो ,तुम परिकथाओं के राजकुमार रहे हो मेरे लिए, जो महज कथाओं तक ही सिमटे रहते है हकीकत से कहीं कोसों  दूर ।"

"अच्छा , तो मै अब चलता हूँ । तुमसे एकबार मिलना था सो मिल लिया । " बाहर आकर जेब में हाथ डाल टिकट फाड़ कर वहीं फेंक बिना पलटे वो निकल गया और वो जाते हुए उसे अपलक उसके ओझल होने तक यूँ ही वहीं ठिठकी रही ।

मौलिक औऱ अप्रकाशित

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Comments are closed for this blog post

Comment by kanta roy on September 9, 2015 at 10:43am
जी , बिलकुल सही कह रहें है आप आदरणीय मिथिलेश जी ,सर जी का हम नवांकुरों के लिये मार्गदर्शन आशीर्वाद है । शत - शत नमन है उनको । मै उन शब्दों के प्रति भविष्य में सचेत रहने की कोशिश करूँगी । आभार आपको कथा पर मेरा हौसला बढाने के लिये ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 7:10pm
आदरणीया कान्ता जी बहुत बढ़िया लघुकथा है। इस प्रस्तुति हेतु आपको हार्दिक बधाई। इस प्रस्तुति में बोल्ड किये गए शब्दों से आपको मार्गदर्शन मिल ही गया है।
इस रचना से ये भी पता चला की किसी रचना के अनुमोदन के पूर्व आदरणीय योगराज सर कितना श्रम करते है। नमन उनके समर्पण को।

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