" पापा , हम गरीब क्यों है ? "
" नहीं बेटा हम गरीब कहाँ .... देखो तो ....तुम शहर के सबसे बडे़ स्कूल में जो पढते हो ! " बेटे को दुलारते हुए पिता ने गोद में बिठा लिया ।
"लेकिन पापा , मेरे दोस्त कहते है कि मै गरीब हूँ । " बच्चे का मन बेहाल सा था ।
" क्यूँ कहते है तुम्हें वो गरीब ... अभी तो ...उस दिन तुम्हारे जन्मदिन पर शानदार दावत दी तुम्हारे दोस्तों को ! " पिता मन को कड़ा कर रहे थे ।
" तभी तो कहा ! उस दिन हमारे घर आने से ही तो उनको मालूम हुआ की हम गरीब है । वो कहते है कि जिसके घर में एल ई डी , ए. सी. और कार नहीं , वो गरीब होते है । " हताश पिता मुंह फेर कर अब बेटे से नजर चुरा रहे थे ।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
सोचता है बाप अब दूकान में
बच्चियों को क्या ख़बर क्या दाम है !
एक कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करती लघुकथा के लिए बधाइयाँ. अब तो माँ-बाप भी 'Simple living high thinking' की बात नहीं करते. पब्लिक स्कूल वग़ैरह तो ऐसा समझाने से रहे ! जैसा न माहौल तारी है कि नैतिकता और संवेदना की ठोस बातें करता आदमी पिछडा या दकियानूस मान लिया जाता है, या फिर सामाजिक और व्यावहारिक रूप से असक्षम.
दिल को कचोटती हुई लघुकथा के लिए हार्दिक बधाइयाँ आदरणीया कान्ताजी.
आ० कान्ता रॉय जी
भौतिक उपलब्धियों की अंतहीन होड़ को बच्चे अपने ही तरह से समझते हैं...
सद्गुणों की दौलत को संस्कारों में न पा पाने वाले अबोध बच्चे... अपनी चीज़ों को ग्रुप में दिखा कर आकर्षण का केंद्र बनने की कोशिश करते हैं. ऐसे में नन्हे बच्चों में कैसे भौतिकता को ही सब कुछ समझ ..गुणों को समझने की प्रवृत्ति का विकास किया जाए ...एक चुनौती होता है.
बड़े स्कूलों में आजकल जन्मदिन के नाम पर प्रदर्शन की होड़ सी लग जाती है.... कक्षा के सहपाठियों को चोकलेटस ..चिप्स...बलून्स... कलम गिफ्ट्स आदि बर्थडे किड्स द्वारा दिया जाना... और वहीं घर पर जन्मदिन समारोह के बाद रिटर्न गिफ्ट्स दिया जाना...कहीं न कहीं बच्चे भी इस होड़ में भागीदार बनते जा रहे हैं कि उनका जन्मदिन दुसरे के जन्मदिन से ज्यादा प्रदर्शनकारी हो..
इस मानसिकता को बहुत सचेत मनस से समझने और न पनपने देने की आवश्यकता है...
आपने समाज में आज के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू को लघुकथा की विषयवस्तु बनाया है. इस चिंतनपरक लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय kanta roy जी बहुत ही मर्म स्पर्शी कथा आपकी ..!! आपकी हर कथा संवेद्मा लिए हुए.....दिल को छू सी जाती है.....आज की कथा थोडा दर्द लिए.....इंसानियत को पीड़ा देती हुई...बहुत ही अच्छे ढंग से आजकल के परिपेक्ष में कई गयी कथा ! बहुत बहुत बधाई | सादर !!
आदरणीय कांता राय जी पहली बार कथा पढ़ी लगा ये जस्ट एक और लघुकथा है । दूसरी बार पढ़ने पर भी कुछ विशेष प्रभावित नहीं हुआ, लगा कथानक बहुत पुराना व घिसा है परन्तु एक बार और पढ़ने पर महसूस किया कि यह कितनी यथार्थपरक रचना है। देखने में भले ही मामूली लगे परन्तु इसका असर बहुत गहन व तीक्ष्ण है। एक आम आदमी को दर्द को बाखूबी उभारती इस प्रभावशाली व यथार्थपरक रचना के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।
प्राइवेट स्कूलों में निचले तबके वालों का कोटा सरकार ने लागू कर दिया है पर ऐसे बच्चे और उनके माता पिता इन स्कूलों में और ज्यादा कुंठित हो जाते हैं और बच्चों की पढाई और विकास में भी असर पड़ता है ,इसी मर्म को बयाँ करती आपकी ये रचना बहुत सटीक है बधाई
आपको आदरणीय कांता जी
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