लघुकथा – पूंछ
सीढ़ियाँ गंदी हो रही थी कविता ने सोचा झाड़ू निकल दूँ. यह देखा कर पड़ोसन ने कचरा सीढ़ियों पर सरका दिया.
बस ! फिर क्या था. कविता का पारा सातवे आसमान पर, “ मैं इस के बाप की नौकर हूँ. नहीं निकाल रही झाड़ू,” बड़बड़ाते हुए कविता ऊपर आई , “ साली अपने को समझती क्या है ? कभी सीढ़ियों पर पानी डाल देगी. कभी लहसन का कचरा. कभी कुछ. मैं इस की नौकर हूँ जो रोजरोज सीढ़ियाँ साफ करती रहू. साली अपने को न जाने क्या समझती है ?
“ क्यों जी. आप बोलते क्यों नहीं.” उस ने पति के हाथ से अख़बार छीन लिया.
“ क्या बोलू ?”
“ वो छिनाल ! एबलापना कर रही है. आप कुछ करते क्यों नही ?”
“ एक बात कहूँ ?”
“ अब तुम बाकि क्यों रखो. कह दो. कीचड़ में कंकर फेकोगे तो कीचड़ ही उड़ेगा.”
“ नहीं. वो नहीं. मैं तो कह रहा था कि कुत्ते की पूछ छः माह तक भोंगली में रख दो तो भी टेडी की टेडी ही रहती है.”
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय जवाहर लाल जी आप की बात उपयुक्त है . आगे से ध्यान रखूँगा.
मेरा सिर्फ इतना निवेदन है - अवांछित गालियों के प्रयोग के बिना भी बातें कही जा सकती थी ...पंच लाइन उपयुक्त लगी आदरणीय om prakash जी!
आदरणीय तेज वीर जी आप को लघुकथा सुन्दर लगी. यह पढ़ कर मेहनत सफल हो गई.
हार्दिक बधाई आदरणीय ओमप्रकश क्षत्रिय जी!बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण लघुकथा!
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