डाकखाने का डाक बाबू
जब अपनी साइकिल पर
चिट्ठियों का थैला लेकर
गाँव की गलियों में आता
तो घर की चौखट पर
अधखुले दरवाजे के पीछे
घूँघट की ओट से दो आँखे
डाक बाबू की राह तकती
आज तो उसके नाम कि भी
जरूर कोई डाक होगी
पुकारेगा डाक बाबू
आज उसका नाम
बलम परदेसी ने
कोई चिट्ठी भेजी होगी
उम्मीद का चिराग
बुझ जाता हैं
जब डाकबाबू दरवाजा
पार करके दूसरी चौखट
पर पहुँच जाता हैं
खटाक से वो अधखुला दरवाजा
फिर बंद हो जाता हैं
कल फिर चौखट पर
घूँघट के पीछे छुपी
दो जोड़ी आँखे
राह तकेंगी डाक बाबू की
कल फिर इन्तजार होगा
बरस से तरसाने वाली
एक निगोड़ी चिट्ठी का
.
"मौलिक तथा अप्रकाशित"
रजनी गोसाईं
Comment
कविता का गहनता से अवलोकन करने तथा प्रोत्साहित करती टिप्पणी के लिए तहे दिल से आभार आदरणीय कांता रॉय जी
आदरणीय प्रतिभा पाण्डेय जी प्रोत्साहन तथा सराहना के लिए हार्दिक आभार
कविता पर आगमन तथा सराहना के लिए हार्दिक आभार आदरणीय डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
कुछ पुरानी फिल्मे जेहन में उभर आयीं आपने अवचेतन को जगा सा दिया.
आदरणीय रजनी जी , सुन्दर रचना के लिए तहे दिल से बधाई स्वीकार करें ,
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी कविता का अवलोकन तथा प्रोत्साहित करने के लिए आपका ह्रदय से आभार
आदरणीया रजनी जी, बहुत सुन्दर प्रस्तुति है. आज के ई मेल युग में खो गई चिट्ठियों और डाकबाबू की प्रतीक्षा को फिर से जीवंत कर दिया. आपकी किसी पहली प्रस्तुति से गुजरते हुए एक नयेपन का अहसास सुखद है. आपका मंच पर स्वागत है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
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