ख़ौफ़ खाता हूँ …
ख़ौफ़ खाता हूँ
तन्हाईयों के फर्श पर रक्स करती हुई
यादों की बेआवाज़ पायल से
ख़ौफ़ खाता हूँ
मेरे जज़्बों को अपाहिज़ कर
अश्कों की बैसाखी पर
ज़िंदा रहने को मज़बूर करती
बेवफा साँसों से
ख़ौफ़ खाता हूँ
हयात को अज़ल के पैराहन से ढकने वाली
उस अज़ीम मुहब्बत से
जो आज भी इक साया बन
मेरे जिस्म से लिपट
मेरे बेजान जिस्म में जान ढूंढती है
और ढूंढती है
ज़मीं से अर्श तक
साथ निभाने की कसमों के बेरहम लम्हे
जो रगों में दौड़ते लहू में
दर्द के दरिया बहाते हैं
चलो अच्छा हुआ
जिस्म का ज़मीं साथ छूट गया
उसके साथ होने का
इक तिलस्म टूट गया
लेकिन न जाने क्योँ
मैं फिर भी खौफ खाता हूँ
बारहा ख़ाके सपुर्द होने के बाद भी
कफ़स से जिस्मानी पिंजर के उठ
गली के किसी नुक्कड पर
लौट आता हूँ
लेम्प पोस्ट की पीली रोशनी में
सर झुकाये बुत की तरह बैठी
बीते लम्हे की परछाई के चेहरे पर
पश्चाताप में पिघल
खारे पानी में भीगे
रुखसारों को देखने के लिए रुक जाता हूँ
मगर क्या मैं ये देख पाऊंगा
शायद हाँ या शायद नहीं
मैं कल भी ख़ौफ़ खाता था
शायद मैं आज भी ख़ौफ़ खाता हूँ
इसीलिये बिन देखे ही उसे
मैं अपने जिस्मानी पिंजर की कफ़स में लौट आता हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
मैं कल भी ख़ौफ़ खाता था
शायद मैं आज भी ख़ौफ़ खाता हूँ
इसीलिये बिन देखे ही उसे
मैं अपने जिस्मानी पिंजर की कफ़स में लौट आता हूँ......
वाह !!! क्या गजब की प्रस्तुति हुई है। शब्द शब्द मन को जड़ कर गए पढ़ते हुए। अद्भुत भाव सुन्दर पंक्तियों का समायोजन। बधाई आपको आदरणीय सुशील सरना जी इस सार्थक रचना के हेतु।
आदरनीय सुशील सरना भाई , इस खूब सूरत भाव पूर्ण प्रस्तुति के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
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