तुम न समझ पाओगे .....
तुम न समझ पाओगे
मुहब्बत की ज़मीन पर
कतरा कतरा बिखरते
रूमानी अहसासों के सायों का दर्द
तुम तो बुत हो
सिर्फ बुत
जिसपर कोई रुत असर नहीं करती
तुम से टकराकर
हर अहसास संग -रेज़ों में तक़सीम जाता है
और साथ चलते साये का वज़ूद
सिफर में तब्दील हो जाता है
रह जाते हैं बस शानों पर
स्याह शब में गुजरे चंद लम्हे
जो आज मुझे किसी माहताब में
लगे दाग़ की तरह लगते हैं
तुम्हारी याद का हर अब्र
मेरी चश्म को
सावन का कहर दे जाता है
मेरे ख़्वाबों को
दर्द का आफ़ताब दे जाता है
मेरे रुखसार पर बहता काजल
अहसास के आगाज़ को अंजाम दे जाता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय narendrasinh chauhan जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से शुक्रिया।
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति का दिल से शुक्रिया।
खूब सुन्दर रचना
आदरणीय हर्ष महाजन जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से शुक्रिया।
आदरणीया कांता रॉय जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति का दिल से शुक्रिया।
आ० Sushil Sarna जी एक अच्छी और दिल को छूने वाली रचना !! बधाई !!
तुम न समझ पाओगे
मुहब्बत की ज़मीन पर
कतरा कतरा बिखरते
रूमानी अहसासों के सायों का दर्द
तुम तो बुत हो
सिर्फ बुत ...........बहुत खूब कही है आपने इन् बुतों की दास्तान। दिल को छूकर निकली है ये पंक्तियाँ।
तुम्हारी याद का हर अब्र
मेरी चश्म को
सावन का कहर दे जाता है
मेरे ख़्वाबों को
दर्द का आफ़ताब दे जाता है..... भाव में डूबी हुई ये अल्फ़ाज़ बेहतरीन है। बधाई आपको इस सार्थक रचना के लिए आदरणीय सुशील सरना जी
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