जनवरी की हड्डी कंपा देने वाली ठंड..मैं ऊपर से नीचे तक गर्म कपड़ों के बावजूद कांप रही थी ।कक्षा में पहुंच कर एक नजर, मेरे सम्मान में खड़े सभी बच्चों पर डाली और बैठने का इशारा किया । तभी मेरी नजर उन बच्चों पर पड़ी जिनके बदन पर कपड़ों के नाम पर बस कपड़ों का नाम था।मैंने उन सभी बच्चों को खड़ा कर दिया ।
"क्यों!स्वेटर कहां है तुम्हारे?स्कूल से स्वेटर के लिये पैसा मिला ना तुम लोगों को फिर..?"लहजा सख्त था । बच्चे सहम गये ।फिर सामने जो कहानी आई बेशक अलग-अलग थी लेकिन नतीजा एक,कि उनके अभिभावक सारा पैसा अपने निजी स्वार्थ पर खर्च कर चुके है ।और वो मासूम डांट के डर से सफाई दे रहे थे-"दीदी!गेहूं की फसल पर स्वेटर आ जायेगा"
"कब"मैंने हैरानी से पूछा ।
"दो महीना बाद "।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Rahila जी आप की लघुकथा ने मजदूर वर्ग की मज़बूरी का खाका खींच दिया. आप का बधाई.
आदरणीया राहिला जी बहुत ही शानदार लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. साथ ही आदरणीय रवि प्रभाकर जी जैसे लघुकथाकार से दाद मिल गई है इसके लिए विशेष बधाई
बहुत बढ़ीया आदरणीय राहिला जी। चुस्त व कटीली लघुकथा कही आपने। कथा के अंत ने अंदर तक झंझोर के रख दिया। /फिर सामने जो कहानी आई बेशक अलग-अलग थी लेकिन नतीजा एक,कि उनके अभिभावक सारा पैसा अपने निजी स्वार्थ पर खर्च कर चुके है ।/ कथा की यह पंक्ित मजदूर वर्ग की विवशता की ओर भी इशारा कर रही है जो अबोध बच्चों के स्वेटर के बजाए एक-दो दिन के खाने को प्राथमिकता देते हैं और यही पंक्ित किसी बाप या घर के किसी और सदस्य द्वारा मासूम के शोषण को भी दिखा रही है जो अपने व्यसन की वजह से बच्चे के स्वेटर तक के पैसे को भी नहीं छोड़ता। पाठक इस पंक्ित का अर्थ चाहे जैसे ग्रहण करे। इस यथातथ्यम व प्रभावोपादक कथा हेतु आपको अत्यंत शुभकामनाएं।
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी!सुन्दर लघुकथा!
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