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तुम इस ही बहाने आओ भी

16 रुक्नी ग़ज़ल
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हम अब भी साँसें खींच रहे; कुछ और सितम तुम ढ़ाओ भी।
दीदार तो होगा कम से कम; तुम इस ही बहाने आओ भी।।

कल सुब्ह चले जाना ये शब, तूफ़ान भरी को बीतने दो।
बादल झरते हैं आँखों से, बरसात है तुम रुक जाओ भी।

अरमान भरे दिल की दुनिया, उजड़ी है अभी बर्बाद हुई।
बस बाकी है दीवार ज़रा, माटी में इसको मिलाओ भी।।

तैयार ज़रा कर दो मुझको, बिखरा बिखरा हूँ ठीक नहीं।
शृंगार अधूरा है मेरा, कुछ मोती मुझपे चढ़ाओ भी।।

कोई क़र्ज़ न बाक़ी रह जाये, अब लेन देन अंतिम कर लो।
उपहार दिये थे जो तुमको, वो फ़ूल हमें लौटाओ भी।।


मौलिक अप्रकाशित

Views: 672

Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 3, 2015 at 7:17pm
आदरणीय गिरिराज सर हौसलाअफजाई के लिए सादर आभार और प्रणाम्
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 3, 2015 at 7:16pm
आदरणीय मिथिलेश सर सादर प्रणाम्
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 3, 2015 at 7:15pm
आदरणीय अजय सर ग़ज़ल की तारीफ के लिए शुक्रिया और सादर अभिवादन
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 3, 2015 at 7:14pm
आदरणीय श्याम नारायण सर सादर धन्यवाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:41pm

आदरनीय पंकज भाई , इस गज़ल के लिये आपको दिली बधाइयाँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 5:06pm

बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है हार्दिक बधाई 

Comment by Ajay Kumar Sharma on November 3, 2015 at 4:07pm

बस बाक़ी है दीवार जरा, माटी में इसे मिलाओ भी।

इस पंक्ति ने मन मोह लिया 'वात्स्यायन' जी। बहुत सुन्दर।

Comment by Shyam Narain Verma on November 3, 2015 at 11:02am
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।

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