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होंठों पे जिनके दीप जलाने की बात है |
सीने में उनके आग लगाने की बात है |
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झाड़ी के फैलते हुए हाथों को काट कर |
कहते है सिर्फ बाग़ सजाने की बात है |
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क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी? |
ये परबतों पे दाल गलाने की बात है |
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अहले-वतन के काफिले होंगे गली-गली |
बस इक दबा सवाल उठाने की बात है |
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फाकों में देखना है अगर मस्तियाँ तुम्हे |
रोटी की गोल ढपली बजाने की बात है |
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जब तक चले, सफ़र में रहे, तो ये जिंदगी |
ठहरी तो समझो मौत के आने बात है |
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खुद ही उतर के आएँगें तारे जमीन पर |
बस आसमां से चाँद हटाने की बात है |
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कश्मीर पर हुजूर खुलेआम कह दिया |
घर की अदावतें क्या बताने की बात है? |
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‘मिथिलेश’ मंच पे है मगर बोलता नहीं |
परदा यहीं पे आज गिराने की बात है |
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Comment
आदरणीय नादिर खान सर, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय रवि जी ग़ज़ल पर आपका मुखर अनुमोदन और सार्थक प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ. आपसे शेर दर शेर उत्साहवर्धन पाकर दिल खुश हो गया. बहुत बहुत आभार हार्दिक धन्यवाद आपका.
आदरणीय मिथिलेश जी शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से दाद क़ुबूल करें , बहुत ही उच्च कोटि की ग़ज़ल हुयी है । बधाई ही बधाई
आदरणीय मिथिलेश जी कल मोबाईल से आपकी इस ग़ज़ल पर एक विस्तृत वार्ता लिखी थी किन्तु तकनीकी कारणों से अपलोड ही नहीं आई । आज फिर कोशिश है देखिये कल वाले भाव और शब्द मिलते हे कि नहीं
खूबसूरत मतले के साथ गजल शुरू होती है जो शेर दर शेर अपने मकाम तक पंहुचती है आपने कुछ महावरों का इस ग़जल मे बहत ही सुन्दर प्रयोग किया है उनके लिये बधाई स्व्ीकार करें
क्या मुफ़लिसी वतन की सियासत से जाएगी?
ये परबतों पे दाल गलाने की बात है ...मुल्क की मुफलिसी की दाल पर्वतो पर तो क्या मैदानों में भी नहीं गलने वाली सुन्दर अभिव्यक्ति
अहले-वतन के काफिले होंगे गली-गली
बस इक दबा सवाल उठाने की बात है वाह वाह आपने हर पाठक के सामने एक खुला मैदान छोड़ दिया हे देखो कौनसा सवाल है जेह्न में उसी के अनुसार शेर अपने स्वरूप के साथ पाठक तक पंहुचता है बने बनाये चश्मे से देखने का अवसर ही नहीं दिया आपने बहुत खूब बधाई स्व्ीकार करे
खुद ही उतर के आएँगें तारे जमीन पर
बस आसमां से चाँद हटाने की बात है हा हा हा मिथिलेश जी हम तो चांद को तारों पर तरजीह देगे क्योंकि चांद हमारे करीब है और उससे निस्बत भी तारों के मुकाबिल ज्यादा है ये ठीक है कि चांद सूरज नाम के तारे से ही रोश्ान है पर उसकी अपनी तासीर सूरज की गर्मी को ठंडा कर देती है । अपनी अपनी पंसद है । मेहदी हसन साहब की गाई एक ग़ज़ल का शेर याद आ रहा है
अपने अपने हौसले अपनी तलब की बात है
चून लिया हमने उन्हें बाकी जहां रहने दिया बहर हाल आपके शेर के लिये दाद तो बनती हे कुबूल करें
‘मिथिलेश’ मंच पे है मगर बोलता नहीं |
परदा यहीं पे आज गिराने की बात है... एकऔर मुहावरा छिपा हुआ सा बहुत खूब जनाब मकते के लिये भी दाद हाजिर है । पर्दा गिराने के बाद मंच पर कर्टन काल भी तो होता है और जब आपको तआरुफ के लिये बुलाया जाएगा तो दर्शकों दीर्घा से हम यही कहेगे ...मुकर्रर मुकर्रर । सुन्दर ग़ज़ल के लिये शेर दर शेर बधाई सवीकार करें । सादर |
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीया राजेश दीदी, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. अशआर कोट करने लायक हुए, जानकार ख़ुशी हुई. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय सतविंदर जी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय मंसूरजी इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आ० भाई मिथिलेश जी इस बोलती ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई l
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