कैसे अपने मधु पलों को शूल शैय्या पे छोड़ आऊँ
स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊं
विगत पलों के अवगुंठन में
इक दीप अधूरा जलता रहा
अधरों पर लज्जा शेष रही
नैनों में स्वप्न मचलता रहा
एकांत पलों में तृप्ति भाव को किस आँगन मैं छोड़ आऊँ
प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ
अधरों से मिलना अधरों का
तिमिर का मौन शृंगार हुआ
तृषित देह का देह मिलन से
अंगार पलों का संचार हुआ
किस पल को मैं बना के जुगनू तिमिर देश में छोड़ आऊँ
प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ
वज्र क्षणों की मृदु रज कण से
अलंकृत सुधियों की श्वास हुई
अभिषेक पीर का हुआ नीर से
कम्पित उर की हर आस हुई
लोचन के मैं अश्रु कलश को किस मेघ देश में छोड़ आऊँ
प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी रचना की प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।
शतकीय रचना पर बधाई श्री सुशिल सरना जी | भावपूर्ण रचना के लिए बधाई
आदरणीय कांता रॉय जी रचना में निहित अहसासों को आपने इतना मान दिया इसके लिए मैं आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
लोचन के मैं अश्रु कलश को किस मेघ देश में छोड़ आऊँ
प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ------अदभुत ,सम्मोहित करती हुई पंक्तियाँ। बेहतरीन रचना है ये आपकी। बधाई कबील कीजिये आदरणीय सुशील सरना जी।
आदरणीय Nita Kasar जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का हृदयतल की गहराईयों से हार्दिक आभार।
आदरणीया कल्पना जी रचना पर अपने शब्दों की स्नेह बरखा का तहे दिल से शुक्रिया।
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आ० vijay nikore जी रचना की प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।
बहुत ही सुन्दर रचना है। बधाई।
आदरणीय Dr.Prachi Singh जी रचना ने आपको प्रभावित किया ,मेरे लिए गर्व की बात है। आपकी हृदयग्राही प्रशंसा एवं गेयता बाबत सुझाव का दिल से हार्दिक आभार।
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