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कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं
अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं
रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें
अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं
उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी
दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं
जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना पानी
जरा सी आड़ मिल जाये , निभाते और ही कुछ हैं
गिज़ा जिस मुल्क से पा के, मिली हाथों को मज़बूती
उन्हीं हाथों से परचम वो , हिलाते और ही कुछ हैं
वो सारे बे अदब निकले, अदीबों में जो थे शामिल
सभी उन पारसाओं के , निशाने और ही कुछ हैं
बबूलों के जने हैं जो , महज़ कांटे बिखेरेंगे
दिखा कर फूल के पौधे , उगाते और ही कुछ हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजत निकोरे जी , आपका आशीष मिला तो उत्साह दो गुना हो गया , आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय राम अवध भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय श्याम नाराइन भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय आमोद भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , ग़ज़ल पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया ने खूब हौसला अफज़ाई की , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय सुशील सरना भाई , आपकी स्नेहिल प्रशंसा के लिये आपका आभार ।
आदरणीय अजय कुमार भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय मनन भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
गज़ल विधा पर आपकी पकड़ बहुत अच्छी है.... एक और अच्छी गज़ल के लिए बधाई।
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