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शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत
किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको
जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत
अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं
है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत
समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये
अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत
नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले
वे भी मुहब्बतों के क्यूँ हक़दार हैं बहुत
धो लीजिये हुज़ूर हथेली कहीं से आप
ज़ह्नों के साथ, हाथ गुनहगार हैं बहुत
निकलेगा सूर्य तो ये भरम टूट जायेगा
गो रोशनी के सामने दीवार हैं बहुत
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत------वाह !!! बहुत खूब ये ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी। बधाई।
//धो लीजिये हुज़ूर हथेली कहीं से आप
ज़ह्नों के साथ, हाथ गुनहगार हैं बहुत//
वाह वाह, बेहद संजीदा शेर लगा, बाकी के अशआर भी एक से बढ़कर एक हैं, दादा कुबूल कीजिये आदरणीय भंडारी भाई साहब.
सुन्दर ग़ज़ल ---शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत ...किसे संबोधित है यह स्पष्ट नहीं है --
भोत खूब सुन्दर रचना
आदरणीया कल्पना जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ।
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
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