ज़िंदगी का रंग फीका था मगर इतना न था
इश्क़ में पहले भी उलझा था मगर इतना न था
क्या पता था लौटकर वापस नहीं आएगा वो
इससे पहले भी तो रूठा था मगर इतना न था
दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये
आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था
अब तो मुश्किल हो गया दीदार भी करना तिरा
पहले भी मिलने पे पहरा था मगर इतना न था
उसकी यादों के सहारे कट रही है ज़िंदगी
भीड़ में पहले भी तन्हा था मगर इतना न था
टुकड़ा टुकड़ा हो गया है ज़िंदगी का आईना
इससे पहले भी मैं टूटा था मगर इतना न था
उसके जाने से बढ़ी 'सूरज' मेरी तिष्नालबी
प्यार के दरिया में प्यासा था मगर इतना न था
डॉ सूर्या बाली 'सूरज'
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये
आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था
बहुत अच्छी गजल के लिए साधुवाद।
आदरणीय नीता जी , आशुतोष जी, प्रदीप जी, गणेश जी , कांति जी और लक्ष्मण जी हौसला अफजाई के लिए आप सभी का हृदय से आभार !
हुत खुबसूरत गजल कही है.बहुत मुबारकबाद कुबुलें आ .भाई सूरज बाली जी.
दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये
आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था----वाह !!! हर अशआर लाज़वाब बने है। बेहतरीन ग़ज़ल हुई है ये आपकी आदरणीय डॉ. सूर्या बाली "सूरज" जी। बधाई कबूल करे।
आदरणीय डॉ सूरज बाली जी, सभी अशआर पसंद आये, अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है, बहुत बहुत बधाई.
आपकी इस रचना ने मरहूम जगजीत जी द्वारा गाई ग़ज़ल याद दिला दी। शुक्रिया
तेरे बारे में जब सोचा नहीं था
मैं तन्हा था मगर इतना न था
सुन्दर भाव मगर कुछ शब्द कहीं कहीं इसे लयबद्ध करने में बाधा डालते हैं. एक अच्छी ग़ज़ल की पहली पहचान है की इसे आसानी से गुनगुनाया जाये.
वो बी वो परिवार के सभी सदस्यों को सादर नमस्कार। कुछ व्यस्तताओं के कारण आपके बीच आ पाना संभव नहीं हो पाया। लगभग एक साल के अंतराल के बाद भी आप का प्यार वैसे ही बरकरार है॥ भाई मिथिलेश बामनकर, रवि शुक्ला जी , गिरिराज भण्डारी जी, सौरभ पांडे जी, शुशील शर्मा जी, धर्मेंद्र कुमार सिंह जी , महेंद्र कुमार जी, अशोक रकताले जी, सतविंदर जी और दिनेश कुमार जी आप सभी हृदय से विशेष रूप से आभार और धन्यवाद ।
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