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पिय बिन चित चंचल रहे, सावन जारे देह।
बूँद बढ़ाये अगन को, विरहिणि बिछुड़ा नेह।।

बिरहा ढोला लोरिकी, चैती को नही मान।
नंगी धुन पर नाचता, पूरा हिन्दुस्तान ।।

माता जी मम्मी भईं, हुए पिता जी डैड।
यह संस्कृति नंगी हुई, हिन्दुस्तानी मैड।।

क्या था अभिनय भूलकर, आज दिखाते जिस्म।
मजबूती से फाँसता, अश्लीलता तिलिस्म।।

(मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Saurabh Pandey on November 24, 2015 at 2:56pm

दोहानुमा प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आशीष भाई. 

पहले दोनों दोहे में ऐसा कुछ है जिस पर आपको ध्यान दे कर दुरुस्त कर लेना चाहिए. इसके लिए पहले दोहा की विधा के प्रति आश्वस्त होलें. 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 24, 2015 at 11:46am

सुंदर  दोहे रचे  है | तीसरे दोहे में "संस्कृति तो नंगी हुई," - में लय भंग हो रही है | सादर 

Comment by आशीष यादव on November 21, 2015 at 8:38pm
aadarniya ashok ji, galti pr dhyaan dilane k liye vishesh dhanyawaad. sikhne k daur me hi hu abhi. aur yha sikhta rahta hu.
Comment by आशीष यादव on November 21, 2015 at 8:36pm
aap aadaraniyon ko saadar dhanyawaad
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 21, 2015 at 10:13am
बहुत बढ़िया कटाक्ष--
"रसिया ढोला बीरहा, चैती को नहि मान
नंगी धुन पर नाचता पूरा हिन्दुस्तान"
--बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय आशीष यादव जी ।
Comment by Ashok Kumar Raktale on November 21, 2015 at 8:56am

आदरणीय आशीष यादव जी सादर, बहुत सुंदर मनमोहक दोहे रचे हैं. फिरभी तीसरे दोहे के तीसरे चरण को जांच लें.सादर.

Comment by आशीष यादव on November 20, 2015 at 5:17pm
Thankyou sir
Comment by Shyam Narain Verma on November 20, 2015 at 3:37pm
बहुत सूंदर दोहे , हार्दिक बधाई आपको ।

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