तीन दिन से शहर में कर्फ़्यु लगा हुआ था!चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ था!सडक पर एक मक्खी भी नहीं दिख रही थी! उसका पूरा परिवार एक शादी में दिल्ली गया हुआ था!शहर में दंगों के कारण उनका लौटना भी नहीं हो पा रहा था!वह घर पर अकेला ही था!बुढापे और बीमारी के कारण वह शादी में नहीं जा सका था! तीन दिन से दूध वाला,सब्ज़ी वाला ,कामवाली बाई,खाना बनाने वाली बाई आदि भी नहीं आ रहे थे!डाइबिटीज़ और ब्लड प्रैसर की दवा भी खत्म हो गयी थी!जैसे तैसे डबल रोटी के सहारे दिन गुजार रहा था!सुबह से उसे चक्कर आ रहे थे क्योंकि दवा नहीं खाई थी! दिन ढलते ढलते वह हिम्मत कर दवा लेने निकल पडा!मुहल्ले में कोई दुकान खुली नहीं दिख रही थी!वह चौराहे की ओर चल दिया!जैसे ही चौराहे पर पहुंचा, पीछे से कडक आवाज़ आई:
"हाथ ऊपर कर ,नहीं तो गोली मार दूंगा"!
उसने सत्तर साल की उम्र में भी नौजवानों जैसी फ़ुर्ती से हाथ उठा दिये!दो तीन पुलिस वालों ने उसे घेर लिया और ऐसे घूरने लगे जैसे वह कोई आतंकवादी हो!
"कौन है बे"!
उससे आधी उम्र के पुलिस वालों का यह संबोधन उसे अंदर तक चीर गया!उसने थकी और घबराई हुई आवाज़ में उत्तर दिया:
"भाई, मैं इसी मोहल्ले का निवासी हूं,मेरी दवा खत्म हो गयी थीं ,वही लेने निकला था"!
"और कितना जीना चाहता है भाई,तेरे पैर तो कब्र में लटक रहे हैं"!
वह कुछ बोल पाता तब तक दूसरे पुलिसवाले ने सवाल दाग दिया,"चल अपना नाम और धर्म बता"!
अब तक वह डर से पसीना पसीना हो चुका थ!मरता क्या ना करता!डरते हुए नाम और धर्म बता दिया!
तीसरा पुलिस वाला चिल्लाया,"झूठ बोल रहा है साला, इसका पाज़ामा खोल कर देखो"!उस पुलिस वाले की बात सुन कर वह गिरते गिरते बचा!उसने दौनों हाथों से मज़बूती से अपने पाज़ामे का नाडा थाम लिया!मगर उन पुलिस वालों के हाथ उसके हाथों से ज़्यादा मज़बूत थे!
वह बिना दवा लिए , ज़िंदा लाश की तरह घर की ओर वापस लौट रहा था! पुलिस वालों को अपना धर्म दिखा कर!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ० भाई तेजवीर जी , निसंदेह लागूकथा उत्क्रिस्ट हुई है किन्तु मैं भी भाई विजय शंकर जी की बात से सहमत हूँ l इस तरह की सोच बनाने में कही न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं l पुलिस को कभी भी निष्पक्ष रूप से काम करने ही नहीं दिया जाता है .जो भी दाल आता है अपनी विचार धरा के हिसाब से काम करने को कहता है . उनमें भी कही न कहीं इससे कुंठा भर जाती है और आज जिस तरह का माहौल बना दिया गया है उसमे नतीजे ऐसे ही निकलते हैं . जरूरत समूचे सामाजिक वातावरण को खंगालने की है .
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ विजय शंकर जी!आप की टिप्पणी का मुझे बिलकुल भी बुरा नहीं लगा! आप जैसे गुणी जनों की सार्थक और आलोचनात्मक टिप्पणी से ही एक रचनाकर को उचित मार्ग दर्शन मिलता है!मुझे यह लघुकथा पोस्ट करते समय ही इस प्रकार की टिप्पणी आने की आशंका थी!किसी पाठक की आलोचना को विवाद के रूप में नहीं लेना चाहिये!अन्यथा आपका लेखनकार्य बाधित होने की शंका बनी रहती है!मैं आपके विचारों का तहे दिल से सम्मान करता हूं!मेरा निवेदन केवल इतना है कि यह मात्र एक लघुकथा नहीं है !यह मेरे एक परिचित के साथ घटित हुयी घटना है!जो न हिन्दू था और न मुसलमान! क्या एक सत्तर वर्षीय बुजुर्ग के कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता!फ़िर इस प्रश्न का औचित्य क्या था!क्या पुलिस को जाति धर्म के दायरे में कार्य करना चाहिये!क्या पुलिस का यह रवैया प्रशंसनीय है!क्या इस तरह की शासन व्यवस्था उचित है!आपने इस लघुकथा की एक विशेषता पर गौर नहीं किया!इसमें किसी पात्र के नाम,जाति और धर्म का जिक्र नहीं है!लघुकथा का मकसद तो पाठक ही निश्चित करे तो बेहतर होता है!सादर!
हार्दिक आभार आदरणीय मीना जी!लघुकथा को समय देने,उसे सराहने हेतु पुनः आभार!
बहुत ही बेबाकी से इस लघुकथा की रचना की है आपने बधाई इस उम्दा लघुकथा के लिए तेजवीर जी
हार्दिक आभार आदरणीय नादिर खान साहब!आप द्वारा लघुकथा को अमूल्य समय देना, उसे पसंद करना,उस पर इतनी बेवाक टिप्पणी करना मुझे आल्हादित कर गया!काफ़ी समय से मेरे मन में द्वंद चल रहा था कि इसे पोस्ट करूं कि नहीं!लेकिन आपकी विवेचना और विश्लेषण से मुझे एक सुक़ून मिला तथा मेरी हौसला अफ़ज़ाई भी हुई!पुनः हार्दिक आभार!
आदरणीय तेज वीर साहब सत्य को उजागर करती आपकी लघुकथा दिल को चीरती हुयी निकल गयी । निसन्देह उच्च कोटि का रचना कर्म हुआ है । आपको बधाई ही बधाई इस बेबाक रचनाकर्म के लिए...
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