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मर्यादा ....

चक्षु को चक्षु से देखा
करते हमने द्वंद
उलझे करों को
देख इक दूजे में
हम तो रह गये दंग
आँख बचा कर
कब बाला ने
बदला कपोल का रंग
वर्तमान में बेहयाई का
हुआ ये आम प्रसंग
संस्कारों को त्याग जोड़े ने
अधर मिलाये संग
समझ न आये
क्यूँ इस युग में
कपडे हो गये तंग
मृग नयनी का
नशा देख के
फीकी पड़ गयी भंग
बैठ बाईक पर
दौड़ चले फिर
इक दूजे के संग
शर्मो-हया की चिंता किसे अब
सतरंगी है मन
यौवन की दहलीज़ पे कैसे
हो न स्वछंद उमंग
पर सीमाओं का ध्यान रहे
हो मर्यादा न भंग
संयत आचरण इस आयु में
है इस जीवन का अंग

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on December 9, 2015 at 4:35pm

आदरणीय शेख उस्मानी साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को स्वीकृति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 9, 2015 at 11:27am
सार्वजनिक स्थलों पर, ड्राइंग रूम में, कोमन होल में, शिक्षण संस्थानों में, लगभग हर जगह का चुनौतीपूर्ण स्वच्छंद परिदृश्य को बेहतरीन लय में शाब्दिक किया है आपने बेहतरीन संदेश संप्रेषित करते हुए। हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय सुशील सरना जी।

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