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पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं
कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1
रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे गमों से रोज ही दो चार हम भी हैं /2
माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने
तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं /3
तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /4
जब से कहा है आपने बेताज हो गए
कहने लगे हैं लोग कि गलहार हम भी हैं /5
पत्थर उठा के सोच रहा आइना हैं क्या
टूटे न जलजले में वो दीवार हम भी हैं /6
21 दिसम्बर
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० भाई गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई लेखन सफल हुआ .आपकी सलाह बेहतरीन है शेर वाकई निखर गया इसके लिए आभार l
आदरणीय लक्ष्मण भाई , अच्छी गज़ल कही है दिली बधाइयाँ आपको ।
तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं -- बेहतरीन शे र कहा आपने , पर उला मे जो केस्थान पर तो कर के एक बार पढ देखिये , शायद और सही लगे ॥
आ० राजेश दी , आपकी उपस्थिति से उत्साह दूना हो गया .आजीवन आपका आशीष मिलता रहे यही कामना है l
आ० भाई रवि जी उचित सलाह और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद l
आ० भाई धर्मेन्द्र जी अपनी उपस्थिति से ग़ज़ल का मन बढ़ने के लिए आभार l
आ० भाई पंकज जी स्नेह के लिए धन्यवाद l
.
आ० भाई मिथलेश जी आपकी उपस्थिति से मन को प्रशन्नता हुई . प्रशंसा के लिए आभार l
आ० भाई समर कबीर जी , उत्साहवर्धन और उचित परामर्श के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .आपकी राय के अनुरूप संशोधन कर लिया है ..स्नेह बनाये रखे ..
आ० भाई सुशील जी , उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार l
आ० भाई शेख शहज़ाद जी ,उत्शाहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l
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