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घाव खोल कर बैठ न जाना -( ग़ज़ल )-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

ग़ज़ल

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2222    2222    2222    222
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आग लगाई क्या अपनों ने अरमानों के मेले में
बैठ गया जो आँसू  लेकर  मुस्कानों  के मेले में /1

कर के बहाना सब मरहम का दुखती  रग को छेड़ेंगे
घाव खोल कर  बैठ न  जाना  पहचानों  के  मेले में /2

छोड़ गए हैं अपने अकेला एक अपाहिज बोझ समझ
अब्दुल्ला  सा  मन  होता  है  अनजानों  के  मेले में /3

जब तक जेब भरी थी अपनी घर आगन सब अपना था
जेबें   खाली  तो  बदला  सब  अनजानों   के  मेले  में /4

होड़ लगी है जा देने की थाम ले दिल को रूखसत तक
आज  शमा  भी  खूब  जलेगी   परवानों  के  मेले  में /5

यार जवानी के जंगल में मत इतना भी शोर मचा
प्रीत बदलते देर न  लगती  अफसानों  के मेले में /6

मदहोशी तो खूब मिली है  लेकिन मन का चैन गया
मंदिर मस्जिद  ढूंढ  रहा  मन  मयखानों  के मेले में /7

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 22, 2015 at 11:09am

आ० भाई मिथिलेश जी , पुनः उपस्थिति के लिए हार्दिक आभार l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 22, 2015 at 11:08am

आ0 भाई सौरभ जी, मार्गदर्शक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार । इस तरह के रदीफ क्यों नहीं लेने चाहिए किस बात ने इन्हें बेतुका बना दिया है, और इन्हें किस प्रकार ठीक किया जा सकता है. अगर समय मिले तो कुछ विस्तार में समझाइस दीजिए जिससे भविष्य में इस तरह का दुहराव न हो । आपका आभारी रहूंगा ।
स्नेहाकांक्षी........


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2015 at 12:14am

बहुत बड़ा मेला लगा दिया आपने तो. 

इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2015 at 11:40pm

रदीफ़ को निभाया तो गया है लेकिन रदीफ़ ही बेतुका किस्म का है आदरणीय लक्ष्मण धामीजी. 

वैसे अश’आर के ख़याल उम्दा हैं. 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:58am


आ0 भाई बैजनाथ जी उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:58am


आ0 भाई वैद्यनाथ जी हार्दिक आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:58am


आ0 भाई मिथिलेश जी , अपको गजल अच्छी लगी लेखन सफल हुआ । कमियों से अवगत कराते रहें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:57am


आ0 भाई समर कबीर जी , गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:57am


आ0 भाई सुशील जी स्नेह के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 19, 2015 at 11:57am


आ0 भाई जान गोरखपुरी जी , उत्साहवर्धन और स्नेह लिए हार्दिक धन्यवाद।

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