22 22 22 22 22 2
हाथों को पत्थर , आँखों को लाली दो
मुँह खोलो, चीखो चिल्लाओ , गाली दो
ऊँचे सुर में आल्हा गाओ , सरहद पर
वीरों को मंचों से मत कव्वाली दो
जिस बस्ती मे रहा हमेशा अँधियारा
उस बस्ती को दिन में भी दीवाली दो
तुम पगड़ी पहनो ले जाओ केसरिया
लाओ सर पर मेरे टोपी जालीदो
छद्म वेश में राहू केतू आये फिर
अमृत नहीं उन्हे ज़हर की प्याली दो
कहीं मूर्खता की सीमा तो बाँधोगे
चोरों के हाथों में मत रखवाली दो
तुम ज़हनों को माजी तक ले कर जाना
आश्वासन हैं झूठे मत तुम ताली दो
सूरज है गुस्से में, धरती बंजर है
सोच-समझ को तुम थोड़ी हरियाली दो
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पुछल्ला -
जिस महफिल की सभी सुराही खाली है
उस महफिल को साक़ी तो मतवाली दो
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मौलिकएवँअप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ भाई , आपने गज़ल पर शिर्कत की तो ग़ज़ल कहना सफल हो गया , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय आशुतोष भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ।
आदरणीय रवि भाई , हौसला अफज़ाई का दिली शुक्रिया
आदरनीय श्याम नाराइन भाई , आपका दिली शुक्रिया ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ
आदरणीय तेज़ वीर भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ।
आदरनीय समर भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपक दिली शुक्रिया ।
सधी सुगढ़ सहज ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ, आदरणीय गिरिराज भाईजी !
आदरणीय गिरिराज भाईसाब बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़ पा रहा हूँ ..हमेशा की तरह लाजवाब ग़ज़ल ..इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय गिरिराज जी बहुत बढि़या ग़ज़ल कही है आपने दिली दाद कुबूल करें
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