212 212 212 212
जीत उसको मिली जो लड़ा ही नहीं
कौन सच में लड़ा ये पता ही नही
साजिशों से अँधेरा किया इस क़दर
कब्र उसकी बनी जो मरा ही नहीं
झूठ के पाँव पर मुद्दआ था खड़ा
पर्त प्याज़ी हठी, कुछ मिला ही नहीं
यूँ बदी अपना खेमा बदलती रही
अब किसी के लिये कुछ बुरा ही नहीं
इन ख़ुदाओं को देखा तो ऐसा लगा
इस जहाँ में कहीं अब ख़ुदा ही नहीं
छोड़ दी जब गली, नक्श भी मिट गये
चाहतें क्या रहें ? जब गिला ही नहीं
क्या कुबूल अब ख़ुदा भी करे सोचिये
जब किसी लब पे कोई दुआ ही नहीं
जिसने समझा मुझे उसने देखा मुझे
मुझको खोजो नहीं, मै छिपा ही नहीं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
अच्छी रचना हेतु बधाई आदरणीय
आदरणीय गिरिराज सर, शानदार ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
वाहह वाहह आदरणीय बहुत ही सुंदर
आदरणीय प्रधान संपादक महोदय , मेरी इस गज़ल को फीचर करने के लिये आपका ह्र्दय से आभार ॥
आदरनीय जयनित भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने। मतला तो लाजवाब हुआ है।
आदरणीय गुमनाम भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय सुशील सरना भाई , आपकी मुखर सराहना के लिये दिल से शुक्रिया आपका ।
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