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छिपा के बाहों में रक्खा था तीरगी ने मुझे
नज़र उठा के भी देखा न रोशनी ने मुझे
थका थका सा बदन है झुके झुके शाने
परीशाँ कर दिया इस दौरे ज़िन्दगी ने मुझे
गली से उनकी जो निकला तभी जहाँ का हुआ
उसी गली में ही रक्खा था आशिक़ी ने मुझे
नज़र में रूह की सच्चाइयाँ पढ़ूँ कैसे
सिखा दिया है वही इल्म, बेबसी ने मुझें
रही तो चाह मेरी भी, तेरे क़रीब आता
तुझी से कर दिया है दूर खस्तगी ने मुझे
अगर ग़लत है जहाँ में कोई, तो वो मैं हूँ
यही वो सोच है , जो दी है बन्दगी ने मुझे
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जु भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आदरणीय तेज़ वीर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय बृजेश भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरनीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया । आपकी सलाह के अनुसार दोनो बदलाव कर रहा हूँ , आपका आभार ।
आदरणीय श्यामभाई , गज़ल की सराहना के लिते आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय गिरिराज सर, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं
आ० भाई गिरिराज जी इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l
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